हिन्दू समाज सिख गुरूओं का सदा ऋणी रहेगा जिन्होंने अपने प्राणों की बलि देकर हिन्दू धर्म की रक्षा की। सिख पन्थ के प्रथम गुरु के प्रकाशोत्सव पर गुरु नानक देव जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
" धन गुरु नानक परगटया।
मिटी धुन्ध जग चानण हुआ।।"
वेद - उपनिषद् प्रतिपादित सत्य सनातन वैदिक धर्म कालान्तर में अन्धविश्वास एवं कुप्रथाओं रूपी अन्धकार से ग्रसित हो गया था ; गुरू नानक देव जी के आगमन से वह अन्धकार दूर हुआ और समाज में सत्य का प्रकाश हुआ।
वेद, उपनिषद् , दर्शन एवं अन्य सब हिन्दू ग्रन्थ संस्कृत में थे। जन्मना ब्राह्मणों ने, प्रमाद तथा अज्ञानवश, न केवल स्वयं इनका अध्ययन छोड़ दिया, अन्यों को भी इन्हें पढ़ने से बाधित किया। संस्कृत भी सामान्य जन की भाषा नहीं रही थी।
वेद- उपनिषद् प्रतिपादित धर्म के सच्चे स्वरूप को गुरु नानक देव जी ने सामान्य जन की भाषा में पद्यमय रसात्मक रूप में लोगों के समक्ष रखा।
प्रश्न किया जा सकता है कि जब गुरु नानक देव जी को संस्कृत भाषा का ही ज्ञान नहीं था उन्होंने वेद उपनिषद् का गूढ़ ज्ञान कैसे अर्जित किया?
इस प्रश्न का उत्तर शांखायन आरण्यक (3.2) के कथन में मिल जाता है :
"स इह स्थानेषु प्रत्याजायते यथाकर्म यथाविद्यम्।"
अर्थात् जीव अपने - अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार संसार में विभिन्न स्थानों (परिस्थितियों एवं योनियों) में जन्म लेता है।
भगवद्गीता (6.45) में भी कहा गया है कि योग में की गई प्रगति की हानि नहीं होती, अगले जन्म में काम आती है।
" अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्। "
अनेक जन्मों में अपने आप को पूर्णता को प्राप्त करता हुआ, परम गति/ मोक्ष को प्राप्त करता है।
पतञ्जलि ऋषि ने ऐसी दिव्य आत्माओं को "भवप्रत्यय" कहा है। भव का अर्थ है जन्म और प्रत्यय का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् जिन्हें जन्म से ही ज्ञान होता है।
गुरु नानक देव जी का वेद - उपनिषद् प्रतिपादित ज्ञान पूर्व जन्म के स्वाध्याय एवं साधना की अभिव्यक्ति है।
प्रस्तुत है उनकी वेदानुकूल शिक्षाएं :
" कृत करो ; वंड छको ; नाम जपो।"
1) यजुर्वेद (40.2) का आदेश है:
" कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं्समा।"
(कर्म करते हुए सौ वर्ष जियो)
"कृत करो" में गुरू नानक देव जी ने शुभ कर्म , परोपकार पर बल दिया है।
उनके जीवन का "सच्चा सौदा" का दृष्टान्त अवलोकनीय है। पिता ने उन्हें कुछ घरेलु सामान ख़रीदने के लिए पैसे दिए। रास्ते में कुछ साधु मिल गए जिन्हें भूख लगी थी। वे उन पैसों से उन्हें खाना खिला कर, घर लौट आए। आध्यात्मिक दृष्टि से , इससे बड़ा "सच्चा सौदा" (उत्कृष्ट व्यापार ) क्या हो सकता है ?
यजुर्वेद (40.5) का मन्त्रांश है:
" तद् दूरे तद्वन्तिके।"
( वह परमात्मा दूर है ,वह अन्दर भी है।)
गुरू नानक जी का शब्द है :
"करणी आपो आपणी , के नेड़े के दूर ।"
( मनुष्य के अपने कर्मों के अनुसार वह परमात्मा छल - कपटीयों से दूर है और पुण्यात्माओं के अन्दर है।)
2) वेद का ही आदेश है :
"केवलाघो भवति केवलादि।"
(जो अकेला खाता है, वह पाप को खाता है/ पाप करता हैं।)
गुरु नानक जी का आदेश है:
" वंड छको।"
बांट कर खाओ; अकेले मत खाओ।
मिल कर खाने के आदेश में भेदभाव की कुप्रथा पर गहरी चोट है।
जात - पात, छुआ - छात वेद विरुद्ध है।
गुरु नानक जी का शब्द है :
"एक नूर ते सब जग उपजे
कौन भले कौन मन्दे।"
( ज्योति स्वरूपा जगदम्बा से ही सभी पैदा हुए हैं, भला कौन नेक और कौन बुरा हो सकता है?)
3) यजुर्वेद (40.15) का उपदेश है:
ओ३म् क्रतो स्मर ।
(कर्मशील जीव ओ३म् का स्मरण कर।)
ओ३म् खं ब्रह्म ।
( ईश्वर आकाशवत् सर्व व्यापक है।)
गुरु नानक देव जी ने " नाम जपो " का मूलमंत्र दिया है। उसके लिए उन्होंने वेद - उपनिषद् - शास्त्र अनुसार ओंकार (ओ३म्) के जाप का विधान किया है :
"१ओंकार सतनाम श्री वाहेगुरु।"
( सत्यस्वरूप, गुरुओं का भी गुरु, ईश्वर का नाम ओंकार है और वह एक है।)
4) कठोपनिषद् (1.2.16) में ओ३म् के स्मरण/जाप का विधान है। उपनिषद् का कथन है :
"यो यदिच्छति तस्य तत्।"
( उसके जाप से/आश्रय से साधक जो चाहता है, वही उसका हो जाता है।)
गुरु नानक जी ने " नाम जपो " पर बहुत बल दिया है। उनका शब्द है:
"प्रभु के सिमरन पूरन आसा ।"
"नानक नाम जहाज़ है
चढ़े हो उतरे पार ।"
"दु:ख में सिमरन सब करैं
सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे
तो दु:ख काहे को होय ।।"
5) वेद के अनुरूप, गुरु नानक जी ने विविध देवी- देवताओं के नामों को एक ईश्वर की शक्तियों के नाम माने हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के विषय में उनका शब्द है :
"एका माई जुगती विआई
तिनि चेले परवाणु।
इकु संसारी इकु भण्डारी
इकु लाए दीवाणु ।।"
(एक जगदम्बा ने सृष्टि की उत्पत्ति की। उसने तीन चेलों की नियुक्ति की। वे हैं : एक संसारी (सृष्टिकर्ता ब्रह्मा), एक भण्डारी (पालनकर्ता विष्णु) एक दरबारी (न्यायकर्ता शिव)।
6) वेद में ईश्वर - अवतारवाद का वर्णन नहीं है। यह पुराणों की अवधारणा है। गुरु नानक देव जी भी श्री राम को ईश्वर का अवतार नहीं मानते। उन के शब्द हैं :
"एक राम दशरथ का बेटा ।
एक राम जग - जग में पैठा ।।"
अर्थात् गुरबाणी में राम शब्द का अर्थ दशरथ पुत्र राम नहीं अपितु सर्वव्यापक परमात्मा है जिसकी परिभाषा है :
"रमन्ते यीगिनो यस्मिन् इति राम:।"
अर्थात् जिसमें योगीजन रमण करते हैं,
वह राम है।
हिन्दूओं की मनोवृत्ति को ध्यान में रखते हुए, गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को आगाह किया था, जिससे सिद्ध हो जाता है कि सिख पन्थ ईश्वर अवतारवाद में विश्वास नहीं रखता :
"जो कोई मोहि परमेश्वर उचरहै
ते नर घोर नरक विच पड़हैं
हम हैं सब भगतन को दासा
देखन आयुहूं जगत तमाशा।।
7) जगत् मिथ्या की अवधारणा भी वेदानुकूल नहीं है।
गुरु नानक देव जी ने भी इसका खण्डन किया है :
"नानक सांचे की सांची कार।
आप सच्चा सच्चा दरबार ।।"
8) कठोपनिषद (2.2.15) का वाक्य है :
"तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।"
( उसके प्रकाश से ही यह सब प्रकाशित हो रहा है।)
गुरु नानक जी का शब्द है :
"सरब जोतिमहिं ताकि जोत।"
9) तैत्तिरीय उपनिषद् (2.8.1) के निम्न श्लोक का, मानो गुरु नानक जी ने अपने शबद में अनुवाद ही कर दिया है :
"भीषाsस्माद्ववात: पवते।
भीषोदेति सूर्य:।
भीषाsस्मादग्निश्चेद्रश्च।
मृत्युर्धावति पञ्चम इति।।"
अर्थात् इसके ( ईश्वर के) भय से ही वायु बहता है। इसके भय से ही सूर्य उदित होता है। इसके भय से ही अग्नि और इन्द्र अपना कार्य करते हैं। पांचवां मृत्यु भी इसके भय से (सब के पीछे) भागता है। यानी, सभी दैवीय शक्तियां उसके नियमानुसार कार्यरत हैं।
गुरु ग्रंथ साहिब (श्लोक महल्ला -1) :
"भय विच पवन वहे सदवाओ,
भय विच चले लग दरयाओ।
भय विच अगन कड़े बिगार,
भय विच धरती दबी भार।
भय विच इन्द फिरै सिर भार,
भय विच राजा धरमद्वार।
भय विच सूरज, भय विच चन्द,
कोह करोड़ी चलते न अन्त।
भय विच सिद्ध, बुद्ध, सुर, नाथ ,
भय विच अडाणे आकाश।
भय विच जोध महवहसूर,
भय विच आवे जावे पूर।
सगलेआ भउ लिखता सिर लेख,
नानक निरभउ निरंकार सच एक।।
............
सत श्री अकाल
(अकालमूर्ति ईश्वर सत्य है।)
....................
शुभ कामनाएं
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