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सोमवार, 14 नवंबर 2022

वैदिक मान्यताएं : ईश्वर

वैदिक मान्यताएं

प्राक्कथन

वेद : ईंश्वरीय ज्ञान (भाग 8)

viii) वेदों का यथार्थ स्वरूप (4) 

छ) " सर्वे अस्मिन् देवा एकवृत्तो भवन्ति।"
           -- अथर्ववेद 2.2.1
 
इसमें ( ईंश्वर में) सभी देवता एकवृत / समाहित होकर एक हो जाते हैं। पूर्व लेख में हमने विभिन्न देवताओं का उल्लेख किया। इसका यह अर्थ नहीं कि वे सभी स्वतन्त्र चेतन सत्ताएं हैं और हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। वस्तुत: ये सभी जड़ पदार्थ हैं, उसी एक ईश्वर की विभिन्न शक्तियों को अभिव्यक्त करने वाले नाम हैं। 

ऋग्वेद ( में स्पष्ट किया गया है " यो देवानां नामधा एक एव।"
अर्थात् देवताओं के नाम धारण करने वाला एक ( ईंश्वर) ही है।  अथर्ववेद (2.2.1) का मंत्रांश है : 
" एक एव नमस्य: वीक्ष्वीड्य:।"
अर्थात् सभी मनुष्यों द्वारा नमन करने तथा स्तुति योग्य एक ( ईश्वर) है।

एक महानुभाव ने प्रश्न किया कि यदि देवी देवताओं की कोई सत्ता नहीं है, तो इतने नामों की क्या आवश्यकता है ? केवल  ओ३म् स्वाहा, ओ३म् स्वाहा का यज्ञों में विधान होता !

ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक है, निराकार है - इस प्रकार के ईश्वर के गुणों को किसी आध्यात्मिक स्तर के बच्चे या सामान्य जन को समझाने के लिए, उपमाओं ( Similes) उदाहरणों का प्रयोग किया जाता है, जिसके विषय में वह अवगत हो। जब हम कहते हैं कि लाला लाजपतराय शेरे पंजाब हैं, उनकी वीरता का ज्ञान सुस्पष्ट हो जाता है। ईश्वर के गुणों की अभिव्यक्ति भी वेदों में इसी प्रकार की गई है ।

ईश्वर सर्वव्यापक है इस वेदोक्ति से सरलता से समझ आ जाता है : " ओ३म् खं ब्रह्म " (यजुर्वेद 40.17) ईश्वर खं (आकाश) के समान सर्वव्यापक है, इसलिए उसका नाम खं है। 

हम षड् रसों से परिचित हैं। रस का अर्थ है आनन्द। इसलिए उक्ति है : " रसो वै स:। " वह रस है, आनन्दस्वरुप है, आनन्द का स्रोत है।

ईश्वर के प्रकाशमय स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए ईश्वर को " आदित्य वर्णम् " ( यजुर्वेद 31.18 ) -- सूर्य सम देदीप्यमान कहा गया है। सूर्य तो उसकी आभा का अंश मात्र भी नहीं। इसे स्पष्ट करने के लिए गीता (11.12) मै कहा है कि यदि सहस्रों सूर्य एक साथ आकाश में उदित हो जाएं तो वह प्रकाश शायद ही ईश्वर की आभा के सदृश हो।

कठोपनिषद ( 2.2.15) का वाक्य है :
" तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।"
(जिस प्रकार चन्द्र सूर्य से प्रकाश ग्रहण कर के पृथ्वी को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार), उस ईश्वर के प्रकाश से ये सब प्रकाशित होते हैं; उसकी ज्योति से यह जगत् ज्योतिष्मान् होता है।

वेदों में देवता "अचेतनान्यपि चेतनवत् स्तूयन्ते " जड़ होते हुए भी, चेतन की तरह उनकी स्तुति की गई है। जैसे --
" सूर्यsआत्मा जगतस्तस्थुषश्च "(यजुर्वेद 7.42)
अर्थात सूर्य चर अचर जगत्।् की आत्मा है। सूर्य स्वयं जड़ है वह समस्त जगत् की आत्मा कैसे हो सकता है ? स्पष्ट है कि यहां पर सूर्य का अर्थ ईश्वर है।

इसी प्रकार अग्नि के समान प्रकाशमान होने से, ईश्वर को अग्नि कहा गया है। ऋग्वेद के पहले ही मंत्र का पहला ही शब्द अग्नि है। क्या यह केवल भौतिक अग्नि का वर्णन है ?
क्या यह सृष्टि यज्ञ के होता ईंश्वर का द्योतक नहीं ? 

यजुर्वेद ( 40.16) के अन्त में अग्नि से प्रार्थना है :
" अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्।"
हे अग्नि स्वरूप प्रभो ! हमें ऐश्वर्य के पथ पर ले चलो।
क्या यह प्रार्थना भौतिक अग्नि ( Fire) को सम्बोधित हो सकती है ?

हम ने कहा कि अग्नि का अर्थ भौतिक अग्नि भी है, मन भी है और ईश्वर भी। प्रकरणानुसार अर्थ लगाया जाता है। यहां प्रकरण प्रार्थना है, इसलिए अग्नि का अर्थ ईश्वर ही उपयुक्त है।

वेद के देवताओं में एक सुप्रसिद्ध देवता सोम है। इसका अर्थ 
औषधीय लता विशेष, जल, चन्द्रमा, अमृत, आनन्द आदि तथा ईश्वर है। सायण आदि ने इसका सदा रुढ़ि अर्थ सोमरस/ मद्य (Wine) ही किया है। ऋग्वेद के नवमें मण्डल ( जिसमें एक हज़ार से अधिक मंत्र हैं) का देवता ( विषय/ Subject matter) सोम है। क्या एक हज़ार मंत्र मद्य ( Wine) की व्याख्या में सम्भव हैं ? 

एक सूत्र है : "अग्नीषोमाभ्यां जगत्।" अर्थात् यह जगत् अग्नि और सोम से बना है। तो क्या यह जगत् अग्नि और मद्य (Wine) से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् (2.1) का कथन है :
"अग्नेराप:। अद्भ्य: पृथिवी।" अर्थात् अग्नि से जल जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। स्पष्ट है कि उपरोक्त सूत्र में सोमक्षका अर्थ जल है, मद्य नहीं।

ऋग्वेद (9.96.5) में सोम के विषय में मंत्र है:

" सोम: पवते जनिता मतीनां
जनिता दिवो जनिता पृथिव्या:।
जनिताग्नेर् जनिता सूर्यस्य
जनितेन्द्रस्य जनतोत विष्णु:।।"

अर्थात सोम उत्तम बुद्धियों का उत्पादक है, वही आकाश पृथ्वी अग्नि सूर्य वायु इत्यादि का उत्पन्न करने वाला है।
कौन सा मूर्ख जो सॉन्ग औषधि को सूर्य चंद्र पृथ्वी आकाश शादी का उत्पादक माने ?

प्रत्येक यज्ञ में एक आहूति दी जाती है :
"ओ३म् सोमाय स्वाहा।"
क्या यह आहूति सोम लता/ मद्य को समर्पित की जाती है ?
स्पष्टत: प्रार्थनात्मक होने से ईश्वर को समर्पित है।

अतः ये सभी देवता ईंश्वर के द्योतक हैं।

ध्यानाकर्षण

यहां यह जान लेना आवश्यक है कि वेदों में जहां भी जड़ पदार्थ नामधारी देवता (सूर्य आदि) को चेतनवत् संबोधित किया गया है अथवा कोई प्रार्थना विशेष की गई है तो वहां पर वह देवता का नाम ईश्वर के लिए प्रयुक्त किया गया है। 

दुर्भाग्यवश इस सत्य ज्ञान को पुराणों में मिथ्याज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वहां जड़ देवता सूर्य आदि का मानवीयकरण ( Personification) कर दिया गया है। इस मिथ्या ज्ञान का ज्वलन्त उदाहरण महाभारत में सूर्य देवता और महाराणी कुन्ती से सूर्यपुत्र दानवीर कर्ण का जन्म है।

यदि सूर्य शब्द का अर्थ ईश्वर ले लिया होता तो यह अनर्थ / अनाचार न होता और सूर्य भगवान से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना भी यथासमय युद्धिष्ठर आदि के जन्म से पूरी हो जाती।

गुरुवार, 10 नवंबर 2022

वैदिक मान्यताएं एवं कर्म सिद्धान्त



    भगवद्गीता में कर्म, अकर्म, विकर्म, स्वकर्म (स्वधर्म), निष्काम कर्म की अवधारणा।

i) वेद का मंत्राश है : “क्रतुमय: पुरुष:” अर्थात् जीव कर्मशील है। मीमांसा दर्शन का प्रथम सूत्र है :
“अथातो धर्मजिज्ञासा ।” 

अर्थात् अब धर्म के विषय में व्याख्या करते हैं, परन्तु वस्तुत: इसमें व्याख्या कर्म की है, वेद विहित कर्म, कर्मकांड की है। इसलिए इसे कर्म मीमांसा कहा जाता है। इस दर्शन में धर्म और कर्म प्रर्यायवाची इसलिए हो गये क्यों कि कर्म जीव का धर्म है।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रंथ ‘भगवद्गीता रहस्य’ का उप-शीर्षक ‘कर्मयोग शास्त्र ‘ रखा है क्योंकि गीता का उद्देश्य “किंकर्तव्यविमूढ़” अर्जुन को स्वधर्म/स्वकर्म में प्रवृत्त करना था।

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है :
” कर्मप्रधान विश्व रचि राखा ।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ।।”

वेद, उपनिषद् , दर्शन-शास्त्र एवं हमारे अन्य धर्म ग्रंथ सम्पूर्ण जगत् व्यवस्था को कर्म आधारित मानते हैं। सांख्य दर्शन (6.41) का कथन है:
” कर्मवैचित्र्यात् सृष्टिवैचित्र्यम्।”
अर्थात् कर्म की विचित्रता से सृष्टि में विचित्रता पाई जाती है।

ii) हमने पूर्व लेखों में बताया कि जीवन में सुख-दु:ख, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म-मोक्ष सभी जीव के निज कर्मों के आधार पर निर्धारित होते हैं।

गीता (3.5) का स्पष्ट निर्देश है :
” न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।”
अर्थात् कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कुछ-न-कुछ कर्म किये बिना नहीं रह सकता।

इतना ही नहीं, श्रीकृष्ण ने गीता (3.8) में यहां तक कह दिया :
” शरीरयात्राsपि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:।।”
अर्थात् बिना कर्म के तो तेरी शरीर-यात्रा भी नहीं चल सकती।

जब कर्म इतना महत्त्वपूर्ण है,
ऐसी स्थिति में गीता (4.17) का उपदेश है:

” कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: ।।”

अर्थात् कर्म की गति गहन है। इसलिए हमें जान लेना चाहिए कि कर्म क्या है ? यह भी जान लेना चाहिए कि विकर्म क्या है ? तथा यह भी जान लेना चाहिए कि अकर्म क्या है ?

कर्म के प्रति और अधिक सतर्क रहने का उपदेश करते हुए गीता (4.18) में कहा गया है :

” कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ।।”

अर्थात् जो व्यक्ति ‘कर्म’ में ‘अकर्म’ और ‘अकर्म’ में ‘कर्म’ देख लेता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है ; वही युक्त अर्थात् योग-युक्त है और सभी कर्म दक्षता से करता हैं।

अतः यह जानना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक कि कर्म है क्या ! मनसा, वाचा, कर्मणा — मन से, वाणी से एवं शरीर से जो भी क्रिया (Activity) / गतिविधि की जाती है, वह कर्म है।

iii) शास्त्रों में कर्म तीन प्रकार के कहे गये हैं — नित्य-कर्म, नैमित्तिक-कर्म, काम्य-कर्म। नित्य-कर्म वे हैं जो सब देश-काल में हमें करने ही चाहिए जैसे सत्य बोलना, माता-पिता की सेवा करना। नैमित्तिक-कर्म वे कर्म हैं जो समय-समय पर आवश्यकता अनुसार करने होते हैं जैसे स्नान करना, अतिथि सत्कार करना। काम्य-कर्म वे कर्म हैं जो किसी कामना/ इच्छा को पूरा करने के लिए किये जाते हैं , जैसे गृहनिर्माण, नौकरी के लिए आवेदन देना।

गीता में कर्म से अभिप्राय निष्काम कर्म एवं स्वकर्म से है जिसे स्वधर्म कहा गया है। यहां धर्म का अर्थ मत/पन्थ/ मज़हब / Religion नहीं है क्योंकि उस समय ईसाईयत, यहूदी, इस्लाम आदि कोई धर्म था ही नहीं ; केवल वैदिक धर्म था जो वर्ण-आश्रम व्यवस्था पर आधारित था।
गीता (4.13) का कथन है:

“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।”

अर्थात् मैंने (ईश्वर ने) यह मानव सृष्टि गुण-कर्म के विभाग के आधार पर चार वर्णों में की है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं है, गुण-कर्म आधार पर है।

iv) कर्म में अकर्म और विकर्म का अभिप्राय क्या है ?

गीता के स्वकर्म/ स्वधर्म की व्याख्या से पहले, कर्म, अकर्म, विकर्म की व्याख्या आवश्यक है। इसका यह अर्थ है कि हमें सतर्क रहना चाहिए कि किसी कर्म (Action) को करते समय, हमारे से कोई अकर्म ( Inaction/ Act of Omission ) तो नहीं हो रहा अर्थात् हम किसी इससे भी महत्त्वपूर्ण कर्म को नज़र अंदाज़ तो नहीं कर रहे या इस कर्म को करते समय हमारे से कोई विकर्म /अकृत्य /बुरा कर्म तो नहीं हो रहा। जिस प्रकार कोई दवाई लेने से पहले हम आश्वस्त हो जाते हैं कि इसकी कोई प्रतिक्रिया (Reaction) या पार्श्व हानि (Side- effect) तो नहीं होगी, उसी प्रकार अपने कार्य/कर्म को करने से पहले, इस के दुष्परिणाम को भी आंक लेना चाहिए।

उदाहरणार्थ, कोई सैनिक देश की सीमा पर अपनी स्थली/ चौकी (Post) की सुरक्षा के लिए तैनात है। सायं काल हो गया है। यह समय ईश्वर प्रार्थना-उपासना अथवा नमाज़ का होने से , सैनिक ईश-प्रार्थना/ नमाज़ में संलग्न हो जाता है। सैनिक के ईश-प्रार्थना/नमाज़ रूपी कर्म में पोस्ट की सुरक्षा को छोड़ना ‘अकर्म ‘( Act of Omission) है, सुरक्षा रूपी कर्म को वह नज़र अन्दाज़ कर रहा है। और यदि इस दौरान शत्रु-पक्ष पोस्ट पर आक्रमण कर देता है ,यह कुकृत्य ‘विकर्म’ है जिसका परोक्ष दायित्व (Vicarious Responsibility) उस सैनिक पर है। सैनिक कानून के अंतर्गत उसके विरुद्ध सैनिक कार्रवाई (Court Marshall) की जा सकती है।

इस संदर्भ में, गीता का संदेश है कि इस ईश-स्तुति/ नमाज़ रूपी कर्म में ‘अकर्म’ और ‘विकर्म’ को देखना चाहिए।

v) अकर्म में कर्म और विकर्म का उदाहरण :

गीता निर्देश देती है कि ‘अकर्म’ ( Inaction) में भी ‘कर्म’ और ‘विकर्म’ छुपे होते हैं, इसलिए ‘अकर्मण्यता’ से भी सावधान रहना चाहिए। (Inaction is act of omission) —
उदाहरणार्थ:

” उचित होगा यहां,
इतिहास का पाठ याद करें ।
पृथ्वीराज चौहान की ,
धर्मविमूढ़ता का स्मरण करें।
गोवध पाप से बचने हेतु,
शस्त्र भूमि पर धर दिये।
फलत: मोहम्मद गौरी ने,
जनवधादि जघन्य कार्य किये।
यह भ्रमित अहिंसा रूप,
नहीं समाज व्यवस्था के लिए।
बुद्धि दी है परमात्मा ने,
प्रयोग में लाने के लिए।।”
(योगदर्शन : काव्य-व्याख्या 1.31 से उद्धृत )

vi) कर्म में विकर्म का उदाहरण :

तिब्बत भारत और चीन में मध्यस्थ देश (Buffer State) था। इसकी सुरक्षा का दायित्व (Suzerainty) भारत के पास था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने एक समझौते के अन्तर्गत तिब्बत की सुज़रैनिटी चीन को दे दी।
उनका यह ‘कर्म’ (Action) ‘विकर्म’ (Wrong Action) था क्योंकि वे राजनीतिज्ञ होते हुए, अपनी दूरदर्शिता से यह नहीं देख पाए कि मध्यस्थ देश (Buffer State) के लुप्त हो जाने पर, भविष्य में चीन से सीमा विवाद खड़े हो सकते हैं; वह भारत पर आक्रमण भी कर सकता है।

vii) स्वकर्म व स्वधर्म क्या है ?

गीता का उपदेश है : कर्म, अकर्म, विकर्म को ध्यान में रखते हुए, मनुष्य को स्वकर्म / स्वधर्म का पालन करना चाहिए। यह स्वधर्म क्या है, स्वकर्म क्या है? अपनी प्रवृत्ति, अपने स्वभाव के अनुसार कार्य स्वधर्म है, स्वकर्म (Aptitude – Related – Work) है। माता-पिता का स्वधर्म तथा स्वकर्म है बच्चों का पालन-पोषण। एक शिक्षक का स्वधर्म तथा स्वकर्म है, अपने शिष्यों को निष्ठापूर्वक शिक्षा देना। एक डाक्टर का स्वधर्म तथा स्वकर्म है, अपने रोगियों का निष्ठा से उपचार करना। एक सैनिक का स्वधर्म तथा स्वकर्म है , देश की रक्षा करना, चाहे जान ही क्यों न चली जाए। एक व्यापारी का स्वधर्म तथा स्वकर्म है, धन-धान्य जुटा कर समाज की सेवा करना। गीता के अनुसार व्यापारी का कार्य ( स्वकर्म) ख़रीद – फ़रोख़्त करके व्यक्तिगत लाभ (Profit) कमाना नहीं है, समाज हित में अर्थ- व्यवस्था को चलाना है।

गीता (18.45) आश्वस्त करती है: 

” स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।”

अर्थात् अपने-अपने कर्म में जो व्यक्ति, अपने स्वभाव के अनुसार, लगा रहता है, वह सिद्धि को प्राप्त होता है। 

इस संदर्भ में सर्वपल्ली राधाकृष्णन् लिखते हैं : " सब मनुष्यों की क्षमताएं समान नहीं होती, परन्तु सब मनुष्य समान रूप से आवश्यक हैं; प्रत्येक मनुष्य अपना अंशदान करता है, अंशदान के रूप में सब का मूल्य समान है। "

viii) निष्काम कर्म क्या है ?

गीता का मूल संदेश है निष्काम कर्म। निष्काम कर्म का अर्थ है : सभी को निज स्वार्थ को त्याग कर, समाज हित, परोपकार की भावना से करना चाहिए। गीता (3.9) का उपदेश है:

” यज्ञार्थात् कर्मणोsन्यत्र लोकोsयं कर्मबन्धन: ।”

अर्थात् इस संसार में जो भी कर्म यज्ञ की भावना से भिन्न होते हैं, बन्धन का कारण बनते हैं।

निष्काम कर्म का यह अर्थ नहीं कि कर्म / कार्य के फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। इसका अभिप्राय केवल इतना है कि अपने कार्य को यज्ञभाव से ( इदन्न मम : यह मेरा नहीं है ) करते हुए फल ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। 

मनुस्मृति ( 2.2) में कहा है : “काम्यो हि वेदाधिगम:” अर्थात् वेदाध्ययन, वेदविहित कर्म कामनामूलक हैं। क्या साधक योगसाधना मोक्षफल प्राप्ति के लिए नहीं करता ? क्या स्वतन्त्रता सेनानी स्वतन्त्रता की कामना से संघर्ष नहीं करते थे ? शुभ कार्यों में फल की कामना शास्त्र सम्मत है। ऐसा भी नहीं कि फल की इच्छा न रखने से, कर्ता को फल नहीं मिलता। मोक्ष निष्काम कर्म का फल ही तो है !

(कर्म सिद्धांत प्रकरण समाप्त हुआ। अब पुनर्जन्म सिद्धांत की व्याख्या करेंगे।)
.................
पादपाठ

1) Who toiled a slave may come anew a prince,
For gentleness and merit won.
Who ruled a prince may wander earth in rags
For things done and undone.
    — Sir Edwin Arnold

जिसने दास के रूप में परिश्रम किया, अपनी भद्रता और दक्षता के कारण, राजकुमार के रूप में प्रकट हो सकता है।
जिसने राजकुमार के रूप में कार्य किया, अपने कृत्यों एवं अकृत्यों के कारण, पृथ्वी पर जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में घूम सकता है।
      — सर एडविन आर्नल्ड

2) The Aryan-Sanskrit sociological thought,  which first defined and named this fourfold structure of society, is as much ours as India’s.
      — Gerald  Heard

आर्य संस्कृति का सामाजिक विचार , जिसने चतुर्वर्ण व्यवस्था को व्याख्यित किया और नाम दिया, आज उतना ही हमारा है जितना भारत का।
    — गैराल्ड  हर्ड

3) अमेरिका के राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन जब कांग्रेस को सम्बोधित कर रहे थे, एक सांसद ने कहा : आपको संज्ञान है कि आपके पिता मेरे घर आकर मेरे जूते बनाया करते थे?

राष्ट्रपति ने उत्तर दिया: जी हां, उन्होंने आपके अतिरिक्त कई अन्य सांसदों के भी जूते बनाए हैं। वे प्रतिभाशाली थे, अपने कार्य में अपनी आत्मा डाल देते थे। किसी ने उनके बनाए जूते में कोई कमी नहीं पाई। यदि आप में से किसी को उनके बनाए जूते से शिकायत है, मैं आपको नया जूता बना कर देने को तैयार हूं। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है । मुझे अपने पिता पर गर्व है।

इस घटना ने परिश्रम की गरिमा ( Dignity of Labour ) को रेखांकित किया और कई नगण्य कर्मियों ने गर्व से अपना उपनाम ‘शूमेकर’ , ‘बारबर’, ‘टेलर’ रखना शुरू कर दिया।

यही है वैदिक वर्णव्यवस्था ।‌ यही है गीता के स्वकर्म/ स्वधर्म की अवधारणा कि अपने कार्य को निष्ठा से, समर्पित भाव से करें 
……………
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श्री गुरु नानक देव जी और हिन्दू



 हिन्दू  समाज सिख गुरूओं का सदा ऋणी रहेगा जिन्होंने अपने प्राणों की बलि देकर हिन्दू धर्म की रक्षा की। सिख पन्थ के प्रथम गुरु के प्रकाशोत्सव पर गुरु नानक देव जी को विनम्र श्रद्धांजलि। 

" धन गुरु नानक परगटया।
मिटी धुन्ध जग चानण हुआ।।"

वेद - उपनिषद् प्रतिपादित सत्य सनातन वैदिक धर्म कालान्तर में अन्धविश्वास एवं कुप्रथाओं रूपी अन्धकार से ग्रसित हो गया था ; गुरू नानक देव जी के आगमन से वह अन्धकार दूर हुआ और समाज में सत्य का प्रकाश हुआ।

वेद, उपनिषद् , दर्शन एवं अन्य सब हिन्दू ग्रन्थ संस्कृत में थे। जन्मना ब्राह्मणों ने, प्रमाद तथा अज्ञानवश, न केवल स्वयं इनका अध्ययन छोड़ दिया, अन्यों को भी इन्हें पढ़ने से बाधित किया। संस्कृत भी सामान्य जन की भाषा नहीं रही थी।

वेद- उपनिषद् प्रतिपादित धर्म के सच्चे स्वरूप को गुरु नानक देव जी ने सामान्य‌ जन की भाषा में पद्यमय रसात्मक रूप में लोगों के समक्ष रखा।

प्रश्न किया जा सकता है कि जब गुरु नानक देव जी को संस्कृत भाषा का ही ज्ञान नहीं था उन्होंने वेद उपनिषद् का गूढ़ ज्ञान कैसे अर्जित किया?

इस प्रश्न का उत्तर शांखायन आरण्यक (3.2) के कथन में मिल जाता है :
"स इह स्थानेषु प्रत्याजायते यथाकर्म यथाविद्यम्।"
अर्थात् जीव अपने - अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार संसार में विभिन्न स्थानों (परिस्थितियों एवं योनियों) में जन्म लेता है। 

भगवद्गीता (6.45) में भी कहा गया है कि योग में की गई प्रगति की हानि नहीं होती, अगले जन्म में काम आती है।

" अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्। "
अनेक जन्मों में अपने आप को पूर्णता को प्राप्त करता हुआ, परम गति/ मोक्ष को प्राप्त करता है।

पतञ्जलि ऋषि ने ऐसी दिव्य आत्माओं को "भवप्रत्यय" कहा है। भव का अर्थ है जन्म और प्रत्यय का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् जिन्हें जन्म से ही ज्ञान होता है।

गुरु नानक देव जी का वेद - उपनिषद् प्रतिपादित ज्ञान पूर्व जन्म के स्वाध्याय एवं साधना की अभिव्यक्ति है।

प्रस्तुत है उनकी वेदानुकूल शिक्षाएं :
" कृत करो ; वंड छको ; नाम जपो।"
 
1) यजुर्वेद (40.2) का आदेश है:

" कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं्समा।"

(कर्म करते हुए सौ वर्ष जियो)

"कृत करो" में गुरू नानक देव जी ने शुभ कर्म , परोपकार पर बल दिया है। 
उनके जीवन का "सच्चा सौदा" का दृष्टान्त अवलोकनीय है। पिता ने उन्हें कुछ घरेलु सामान ख़रीदने के लिए पैसे दिए। रास्ते में कुछ साधु मिल गए जिन्हें भूख लगी थी। वे उन पैसों से उन्हें खाना खिला कर, घर लौट आए। आध्यात्मिक दृष्टि से , इससे बड़ा "सच्चा सौदा" (उत्कृष्ट व्यापार ) क्या हो सकता है ?

यजुर्वेद (40.5) का मन्त्रांश है:

" तद् दूरे तद्वन्तिके।"
( वह परमात्मा दूर है ,वह अन्दर भी है।)

गुरू नानक जी का शब्द है :

"करणी आपो आपणी , के नेड़े के दूर ।"
( मनुष्य के अपने कर्मों के अनुसार वह परमात्मा छल - कपटीयों से दूर है और पुण्यात्माओं के अन्दर है।)

2) वेद का ही आदेश है :

"केवलाघो भवति केवलादि।"
(जो अकेला खाता है, वह पाप को खाता है/ पाप करता हैं।)

गुरु नानक जी का आदेश है:

" वंड छको।"
बांट कर खाओ; अकेले मत खाओ।

मिल कर खाने के आदेश में भेदभाव की कुप्रथा पर गहरी चोट है।

जात - पात, छुआ - छात वेद विरुद्ध है। 
गुरु नानक जी का शब्द है :
 
"एक नूर ते सब जग उपजे
कौन भले कौन मन्दे।"
( ज्योति स्वरूपा जगदम्बा से ही सभी पैदा हुए हैं, भला कौन नेक और कौन बुरा हो सकता है?)

3) यजुर्वेद (40.15) का उपदेश है:

ओ३म् क्रतो स्मर ।
(कर्मशील जीव ओ३म् का स्मरण कर।)

ओ३म् खं ब्रह्म ।
( ईश्वर आकाशवत् सर्व व्यापक है।)

गुरु नानक देव जी ने " नाम जपो " का मूलमंत्र दिया है। उसके लिए उन्होंने वेद - उपनिषद्  - शास्त्र अनुसार ओंकार (ओ३म्) के जाप का विधान किया है :
"१ओंकार सतनाम श्री वाहेगुरु।"
( सत्यस्वरूप, गुरुओं का भी गुरु, ईश्वर का नाम ओंकार है और वह एक है।)

4)  कठोपनिषद् (1.2.16) में ओ३म् के स्मरण/जाप का विधान है। उपनिषद् का कथन है :

"यो यदिच्छति तस्य तत्।"
( उसके जाप से/आश्रय से साधक जो चाहता है,  वही उसका हो जाता है।)

गुरु नानक जी ने " नाम जपो " पर बहुत बल दिया है। उनका शब्द है:

"प्रभु के सिमरन पूरन आसा ।"

"नानक नाम जहाज़ है
चढ़े हो उतरे पार ।"

"दु:ख में सिमरन सब करैं
सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे
तो दु:ख काहे को होय ।।"

5) वेद के अनुरूप, गुरु नानक जी ने विविध देवी- देवताओं के नामों को एक ईश्वर की शक्तियों के नाम माने हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के विषय में उनका शब्द है :

"एका माई जुगती विआई 
तिनि चेले परवाणु।
इकु संसारी इकु भण्डारी
इकु लाए दीवाणु ।।"

(एक जगदम्बा ने सृष्टि की उत्पत्ति की। उसने तीन चेलों की नियुक्ति की। वे हैं : एक संसारी (सृष्टिकर्ता ब्रह्मा), एक भण्डारी (पालनकर्ता विष्णु) एक दरबारी (न्यायकर्ता शिव)।

6) वेद में ईश्वर - अवतारवाद का वर्णन नहीं है। यह पुराणों की अवधारणा है। गुरु नानक देव जी भी श्री राम को ईश्वर का अवतार नहीं मानते। उन के शब्द हैं :

"एक राम दशरथ का बेटा ।
एक राम जग - जग में पैठा ।।"

अर्थात्  गुरबाणी में राम शब्द का अर्थ दशरथ पुत्र राम नहीं अपितु सर्वव्यापक परमात्मा है जिसकी परिभाषा है : 

"रमन्ते यीगिनो यस्मिन् इति राम:।"
अर्थात् जिसमें योगीजन रमण करते हैं, 
वह राम है।

हिन्दूओं की मनोवृत्ति को ध्यान में रखते हुए, गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को आगाह किया था, जिससे सिद्ध हो जाता है कि सिख पन्थ ईश्वर अवतारवाद में विश्वास नहीं रखता :

"जो कोई मोहि परमेश्वर उचरहै
ते नर घोर नरक विच पड़हैं
हम हैं सब भगतन को दासा
देखन आयुहूं जगत तमाशा।।

7) जगत् मिथ्या की अवधारणा भी वेदानुकूल नहीं है। 
गुरु नानक देव जी ने भी इसका खण्डन किया है :

"नानक सांचे की सांची कार।
आप सच्चा सच्चा दरबार ।।"

8) कठोपनिषद (2.2.15) का वाक्य है :

"तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।"
( उसके प्रकाश से ही यह सब प्रकाशित हो रहा है।)

गुरु नानक जी का शब्द है :
"सरब जोतिमहिं ताकि जोत।"

9) तैत्तिरीय उपनिषद् (2.8.1) के निम्न श्लोक का, मानो गुरु नानक जी ने अपने शबद में अनुवाद ही कर दिया है :

"भीषाsस्माद्ववात: पवते।
भीषोदेति सूर्य:।
भीषाsस्मादग्निश्चेद्रश्च।
मृत्युर्धावति पञ्चम इति।।"

अर्थात् इसके ( ईश्वर के) भय से ही वायु बहता है। इसके भय से ही सूर्य उदित होता है। इसके भय से ही अग्नि और इन्द्र अपना कार्य करते हैं। पांचवां मृत्यु भी इसके भय से (सब के पीछे) भागता है। यानी, सभी दैवीय शक्तियां उसके नियमानुसार कार्यरत हैं।

गुरु ग्रंथ साहिब (श्लोक महल्ला -1)  :

"भय विच पवन वहे सदवाओ,
भय विच चले लग दरयाओ।
भय विच अगन कड़े बिगार,
भय विच धरती दबी भार।
भय विच इन्द फिरै सिर भार,
भय विच राजा धरमद्वार।
भय विच सूरज, भय विच चन्द, 
कोह करोड़ी चलते न अन्त।
भय विच सिद्ध, बुद्ध, सुर, नाथ ,
भय विच अडाणे आकाश।
भय विच जोध महवहसूर,
भय विच आवे जावे पूर।
सगलेआ भउ लिखता सिर लेख,
नानक निरभउ निरंकार सच एक।।
............
सत श्री अकाल
(अकालमूर्ति ईश्वर सत्य है।)
....................
शुभ कामनाएं

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