ऊं डिं डिं डिंकत डिम्ब डिम्ब डमरु,पाणौ सदा यस्य वै।
फुं फुं फुंकत सर्पजाल हृदयं,घं घं च घण्टा रवम् ॥
वं वं वंकत वम्ब वम्ब वहनं,कारुण्य पुण्यात् परम्॥
भं भं भंकत भम्ब भम्ब नयनं,ध्यायेत् शिवं शंकरम्॥
(जिसके हाथों में सदा डमरू है और जो उसे बजाते रहते हैं,
जो फुँकार भरते हुए सर्पजाल (सर्पमालाएँ) हृदय पर धारण किए हैं, जो घंटा का घं-घं नाद करते हैं,
जो करुणा के कारण महान पुण्य स्वरूप हैं,
जिनकी दृष्टि भौं-भौं करती हुई नेत्रों से प्रकट होती है।
उन भगवान शिव शंकर का ध्यान करना चाहिए।)
यावत् तोय धरा धरा धर धरा ,धारा धरा भूधरा।।
यावत् चारू सुचारू चारू चमरं, चामीकरं चामरं।।
यावत् रावण राम राम रमणं, रामायणे श्रूयताम्।
तावत् भोग विभोग भोगमतुलम् यो गायते नित्यशः॥
(जब तक यह पृथ्वी जल से सिंचित रहती है,
जब तक सुनहरे चामर (झाले) सुशोभित होते हैं,
जब तक रामायण में राम-रावण युद्ध का वर्णन सुनाया जाता है, तब तक जो व्यक्ति इस स्तुति को गाता है,
वह अद्भुत और अनुपम भोगों का अधिकारी होता है।)
यस्यास्ते द्राट द्राट द्रुट द्रुट ममलं, टंट टं टं टटं टम्।
तैलं तैलं तु तैलं खुखु खुखु खुखुमं ,खंख खंख सखंखम्॥
डंसं डंसं डु डंसं डुहि डुहि चकितं, भूपकं भूय नालम्।।
ध्यायन्ते विप्रगान्ते वसतु च सकलं पातु नो चन्द्रचूड़ ||
(जिसके मुख से डमरू, टनटनाहट, शंख की ध्वनि,
तेल की धारा जैसी गूंज, और डुह-डुह जैसी ध्वनियाँ निकलती हैं, जिन्हें देखकर भक्तगण विस्मित हो जाते हैं,
वे चंद्रचूड़ (जिनके मस्तक पर चंद्रमा है) सबकी रक्षा करें।)
चैतन्यं मनं मनं मनमनं मानं मनं मानसम!
माया ज्वार धवं धवं धव धवं धावं धवं माधवं
स्वाहा चार चरं चर चरं चारं चरं वाचरं
वैकुंठाधिपते भवं भवभवं भावंभवं शांभवं !!
(हे चैतन्यस्वरूप प्रभु!
आप ही मन हैं, आप ही मानस हैं, आप ही ज्ञान हैं।
माया के प्रवाह को रोकने वाले आप ही हैं।
आप ही माधव हैं।
आप ही चारों दिशाओं में व्याप्त चराचर के अधिपति हैं।
हे वैकुण्ठनाथ!
आप ही भव (जन्म), भवरोग नाशक, और शंकरस्वरूप हैं।)