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सोमवार, 14 नवंबर 2022

वैदिक मान्यताएं : ईश्वर

वैदिक मान्यताएं

प्राक्कथन

वेद : ईंश्वरीय ज्ञान (भाग 8)

viii) वेदों का यथार्थ स्वरूप (4) 

छ) " सर्वे अस्मिन् देवा एकवृत्तो भवन्ति।"
           -- अथर्ववेद 2.2.1
 
इसमें ( ईंश्वर में) सभी देवता एकवृत / समाहित होकर एक हो जाते हैं। पूर्व लेख में हमने विभिन्न देवताओं का उल्लेख किया। इसका यह अर्थ नहीं कि वे सभी स्वतन्त्र चेतन सत्ताएं हैं और हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। वस्तुत: ये सभी जड़ पदार्थ हैं, उसी एक ईश्वर की विभिन्न शक्तियों को अभिव्यक्त करने वाले नाम हैं। 

ऋग्वेद ( में स्पष्ट किया गया है " यो देवानां नामधा एक एव।"
अर्थात् देवताओं के नाम धारण करने वाला एक ( ईंश्वर) ही है।  अथर्ववेद (2.2.1) का मंत्रांश है : 
" एक एव नमस्य: वीक्ष्वीड्य:।"
अर्थात् सभी मनुष्यों द्वारा नमन करने तथा स्तुति योग्य एक ( ईश्वर) है।

एक महानुभाव ने प्रश्न किया कि यदि देवी देवताओं की कोई सत्ता नहीं है, तो इतने नामों की क्या आवश्यकता है ? केवल  ओ३म् स्वाहा, ओ३म् स्वाहा का यज्ञों में विधान होता !

ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक है, निराकार है - इस प्रकार के ईश्वर के गुणों को किसी आध्यात्मिक स्तर के बच्चे या सामान्य जन को समझाने के लिए, उपमाओं ( Similes) उदाहरणों का प्रयोग किया जाता है, जिसके विषय में वह अवगत हो। जब हम कहते हैं कि लाला लाजपतराय शेरे पंजाब हैं, उनकी वीरता का ज्ञान सुस्पष्ट हो जाता है। ईश्वर के गुणों की अभिव्यक्ति भी वेदों में इसी प्रकार की गई है ।

ईश्वर सर्वव्यापक है इस वेदोक्ति से सरलता से समझ आ जाता है : " ओ३म् खं ब्रह्म " (यजुर्वेद 40.17) ईश्वर खं (आकाश) के समान सर्वव्यापक है, इसलिए उसका नाम खं है। 

हम षड् रसों से परिचित हैं। रस का अर्थ है आनन्द। इसलिए उक्ति है : " रसो वै स:। " वह रस है, आनन्दस्वरुप है, आनन्द का स्रोत है।

ईश्वर के प्रकाशमय स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए ईश्वर को " आदित्य वर्णम् " ( यजुर्वेद 31.18 ) -- सूर्य सम देदीप्यमान कहा गया है। सूर्य तो उसकी आभा का अंश मात्र भी नहीं। इसे स्पष्ट करने के लिए गीता (11.12) मै कहा है कि यदि सहस्रों सूर्य एक साथ आकाश में उदित हो जाएं तो वह प्रकाश शायद ही ईश्वर की आभा के सदृश हो।

कठोपनिषद ( 2.2.15) का वाक्य है :
" तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।"
(जिस प्रकार चन्द्र सूर्य से प्रकाश ग्रहण कर के पृथ्वी को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार), उस ईश्वर के प्रकाश से ये सब प्रकाशित होते हैं; उसकी ज्योति से यह जगत् ज्योतिष्मान् होता है।

वेदों में देवता "अचेतनान्यपि चेतनवत् स्तूयन्ते " जड़ होते हुए भी, चेतन की तरह उनकी स्तुति की गई है। जैसे --
" सूर्यsआत्मा जगतस्तस्थुषश्च "(यजुर्वेद 7.42)
अर्थात सूर्य चर अचर जगत्।् की आत्मा है। सूर्य स्वयं जड़ है वह समस्त जगत् की आत्मा कैसे हो सकता है ? स्पष्ट है कि यहां पर सूर्य का अर्थ ईश्वर है।

इसी प्रकार अग्नि के समान प्रकाशमान होने से, ईश्वर को अग्नि कहा गया है। ऋग्वेद के पहले ही मंत्र का पहला ही शब्द अग्नि है। क्या यह केवल भौतिक अग्नि का वर्णन है ?
क्या यह सृष्टि यज्ञ के होता ईंश्वर का द्योतक नहीं ? 

यजुर्वेद ( 40.16) के अन्त में अग्नि से प्रार्थना है :
" अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्।"
हे अग्नि स्वरूप प्रभो ! हमें ऐश्वर्य के पथ पर ले चलो।
क्या यह प्रार्थना भौतिक अग्नि ( Fire) को सम्बोधित हो सकती है ?

हम ने कहा कि अग्नि का अर्थ भौतिक अग्नि भी है, मन भी है और ईश्वर भी। प्रकरणानुसार अर्थ लगाया जाता है। यहां प्रकरण प्रार्थना है, इसलिए अग्नि का अर्थ ईश्वर ही उपयुक्त है।

वेद के देवताओं में एक सुप्रसिद्ध देवता सोम है। इसका अर्थ 
औषधीय लता विशेष, जल, चन्द्रमा, अमृत, आनन्द आदि तथा ईश्वर है। सायण आदि ने इसका सदा रुढ़ि अर्थ सोमरस/ मद्य (Wine) ही किया है। ऋग्वेद के नवमें मण्डल ( जिसमें एक हज़ार से अधिक मंत्र हैं) का देवता ( विषय/ Subject matter) सोम है। क्या एक हज़ार मंत्र मद्य ( Wine) की व्याख्या में सम्भव हैं ? 

एक सूत्र है : "अग्नीषोमाभ्यां जगत्।" अर्थात् यह जगत् अग्नि और सोम से बना है। तो क्या यह जगत् अग्नि और मद्य (Wine) से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् (2.1) का कथन है :
"अग्नेराप:। अद्भ्य: पृथिवी।" अर्थात् अग्नि से जल जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। स्पष्ट है कि उपरोक्त सूत्र में सोमक्षका अर्थ जल है, मद्य नहीं।

ऋग्वेद (9.96.5) में सोम के विषय में मंत्र है:

" सोम: पवते जनिता मतीनां
जनिता दिवो जनिता पृथिव्या:।
जनिताग्नेर् जनिता सूर्यस्य
जनितेन्द्रस्य जनतोत विष्णु:।।"

अर्थात सोम उत्तम बुद्धियों का उत्पादक है, वही आकाश पृथ्वी अग्नि सूर्य वायु इत्यादि का उत्पन्न करने वाला है।
कौन सा मूर्ख जो सॉन्ग औषधि को सूर्य चंद्र पृथ्वी आकाश शादी का उत्पादक माने ?

प्रत्येक यज्ञ में एक आहूति दी जाती है :
"ओ३म् सोमाय स्वाहा।"
क्या यह आहूति सोम लता/ मद्य को समर्पित की जाती है ?
स्पष्टत: प्रार्थनात्मक होने से ईश्वर को समर्पित है।

अतः ये सभी देवता ईंश्वर के द्योतक हैं।

ध्यानाकर्षण

यहां यह जान लेना आवश्यक है कि वेदों में जहां भी जड़ पदार्थ नामधारी देवता (सूर्य आदि) को चेतनवत् संबोधित किया गया है अथवा कोई प्रार्थना विशेष की गई है तो वहां पर वह देवता का नाम ईश्वर के लिए प्रयुक्त किया गया है। 

दुर्भाग्यवश इस सत्य ज्ञान को पुराणों में मिथ्याज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वहां जड़ देवता सूर्य आदि का मानवीयकरण ( Personification) कर दिया गया है। इस मिथ्या ज्ञान का ज्वलन्त उदाहरण महाभारत में सूर्य देवता और महाराणी कुन्ती से सूर्यपुत्र दानवीर कर्ण का जन्म है।

यदि सूर्य शब्द का अर्थ ईश्वर ले लिया होता तो यह अनर्थ / अनाचार न होता और सूर्य भगवान से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना भी यथासमय युद्धिष्ठर आदि के जन्म से पूरी हो जाती।