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गुरुवार, 30 मार्च 2023

भारत के कुछ प्रमुख पर्यटन स्थल

भारत दुनिया में अपनी समृद्ध इतिहास, संस्कृति और विविधता के लिए जाना जाता है। यहां कुछ भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं:

१.ताज महल, आगरा - भारत का एक प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल है जहां स्थानीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित होते हैं।
२.हवा महल, जयपुर - यह एक इमारत है जो राजस्थानी शैली में बनाई गई है और जो राजपूतों के राज में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
३.कोचीन, केरल - यह एक आकर्षक नगर है जो एक आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है जो उत्तर भारत से अलग होता है।
४.गोवा - यह भारत का एक बहुत ही लोकप्रिय बीच स्थल है जो पर्यटकों को अपने सुंदर बीच, पारंपरिक फेनीशिंग और फेस्टिवल्स के लिए खींचता है।
५.खजुराहो के मंदिर - ये एक समृद्ध धार्मिक स्थल हैं जहां पर विभिन्न प्राचीन मंदिर हैं, जो समृद्ध भारतीय संस्कृति का प्रतीक हैं।

गांव

गांव भारत की संस्कृति का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है। गांव एक सामाजिक एवं आर्थिक संरचना है जिसमें लोगों के जीवन स्तर के साथ साथ उनकी संस्कृति एवं ट्रेडिशन भी जुड़े हुए हैं। गांव में सभी लोग एक दूसरे से परिचित होते हैं और एक साथ रहने का तालमेल रहता है। गांव में लोगों के जीवन शैली में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाता है। गांव एक प्राकृतिक वातावरण भी होता है जिसमें लोग पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखते हैं और जीवन को समृद्ध करने का प्रयास करते हैं।

बुधवार, 29 मार्च 2023

खम ठोक ठेलता है जब नर,पर्वत के जाते पाँव उखड़ ||

सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है | 
शूरमा नहीं विचलत होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते ||
  विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं |
  मुख से नाकभी उफ कहते हैं,संकट का चरण न गहते हैं ||
जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग निरत नित रहते हैं |
शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को ||
    है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में |
   खम ठोक ठेलता है जब नर,पर्वत के जाते पाँव उखड़ ||
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है |
 गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर ||
        मेहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका बीच उजियाली हो |
        बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है ||
पीसा जाता जब इक्षुदण्ड, झरती रस की धारा अखंड |
 मेहंदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार ||
     जब फूल पिरोए जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं |
     वसुधा का नेता कौन हुआ ? भूखंड विजेता कौन हुआ ?
 अतुलित यश क्रेता कौन हुआ ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ ?
 जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया ||
     जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हम जगाते हैं |
     मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झंझोरते हैं पल-पल ||
सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही |
 वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं ||
   वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड |
   वन में प्रसून तो खिलते हैं, बागों में शाल न मिलते हैं ||
        कंकरिया जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर |
        विपदाएं दूध पिलाती है, लोरी आँधियाँ सुनाती है ||
जो लाक्षागृह में जलते हैं, वे ही शूरमा निकलते हैं |
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा !
    जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे |
    तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिंगारी है ?
                                                  रामधारी सिंह "दिनकर"

रविवार, 5 मार्च 2023

शिवध्यानम्


ऊं डिं डिं डिंकत डिम्ब डिम्ब डमरु,पाणौ सदा यस्य वै।
फुं फुं फुंकत सर्पजाल हृदयं,घं घं च घण्टा रवम् ॥
वं वं वंकत वम्ब वम्ब वहनं,कारुण्य पुण्यात् परम्॥
भं भं भंकत भम्ब भम्ब नयनं,ध्यायेत् शिवं शंकरम्॥

यावत् तोय धरा धरा धर धरा ,धारा धरा भूधरा।।
यावत् चारू सुचारू चारू चमरं, चामीकरं चामरं।।
यावत् रावण राम राम रमणं, रामायणे श्रूयताम्।
तावत् भोग विभोग भोगमतुलम् यो गायते नित्यशः॥

यस्यास्ते द्राट द्राट द्रुट द्रुट ममलं, टंट टं टं टटं टं।
तैलं तैलं तु तैलं खुखु खुखु खुखुमं ,खंख खंख सखंखम्॥
डंसं डंसं डु डंसं डुहि डुहि चकितं, भूपकं भूय नालम्।।
ध्यायन्ते विप्रगान्ते वसतु च सकलं पातु नो चन्द्रचूड़ ||

चैतन्यं मनं मनं मनमनं मानं मनं मानसम!
माया ज्वार धवं धवं धव धवं धावं धवं माधवं
स्वाहा चार चरं चर चरं चारं चरं वाचरं 
वैकुंठाधिपते भवं भवभवं भावंभवं शांभवं !!

शुक्रवार, 3 मार्च 2023

दिनकर का जाति-प्रथा पर करारा प्रहार :- 'शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछने वाले'

फिरा कर्ण, त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सकल नर-नारी,
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, 'वीर! शाबाश!'

द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा।
कृपाचार्य ने कहा- 'सुनो हे वीर युवक अनजान'
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।

'क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?'

'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।

'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

   ‘रश्मिरथी’ 1952 ई० में प्रकाशित हुआ था। रश्मिरथी का अर्थ ‘सूर्य का सारथी’ होता है। यह एक प्रसिद्ध ‘खण्डकाव्य’ है। यह खड़ीबोली में लिखा गया है। रश्मिरथी में कर्ण के चरित्र के सभी पक्षों का चित्रण किया गया है। दिनकर ने कर्ण को महा भारतीय कथानक से ऊपर उठाकर उसे नैतिकता और विश्वसनीयता की नई भूमि पर खड़ा करके उसे गौरव से विभूषित किया है। रश्मिरथी में दिनकर जी ने सभी सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को नये सिरे से परखा है। रश्मिरथी में कवि ने कर्ण को नायक बनाया है, अर्जुन गौणपात्र है।

रश्मिरथी में सात सर्ग है।

प्रथम सर्ग: कर्ण का शौर्य प्रदर्शन

दूसरा सर्ग: परशुराम के आश्रम वर्णन (आश्रमवास)

तीसरा सर्ग: कृष्ण का संदेश

चौथा सर्ग: कर्ण के महादान की कथा

पाँचवाँ सर्ग: माता कुन्ती की विनती

छठा सर्ग: शक्ति प्रदर्शन

साँतवा सर्ग: कर्ण के बलिदान की कथा 

       ‘रश्मिरथी’ महाकाव्य काव्य में रश्मिरथी कर्ण का नाम है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है। कर्ण महाभारत महाकाव्य का अत्यंत यशस्वी पात्र है। कर्ण का जन्म पाण्डवों की माता कुंती के गर्भ से उस समय हुआ था, जब कुन्ती अविवाहित थी। लोक-लज्जा के भय से बचने के लिए कुन्ती ने अपने नवजात शिशु को एक मंजूषा में बंद कर उसे नदी में बहा दिया था। वह मंजूषा अधिरथ नाम के एक सूत को मिला था। अधिरथ को कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने उस बच्चे का पालन-पोषण अपने पुत्र के जैसा किया। अधिरथ की धर्मपत्नी का नाम राधा था। राधा के द्वारा पालन-पोषण होने के कारण ही कर्ण का एक और नाम ‘राधेय’ भी है।