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मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

कारक_प्रकरण

    कारक प्रकरण


कारक
सूत्र:- क्रियान्वयि कारकं
व्याख्या:- क्रिया के साथ जिसका प्रत्यक्ष संबंध हो, उसे कारक कहते हैं।
यथा:- राम संस्कृत पढता है ।
      रामः संस्कृतम् पठति । यहां राम और संस्कृत कारक है।
संस्कृत भाषा में छः कारक होते हैं--

१) कर्ता २) कर्म ३) करण ४) सम्प्रदान ५) अपादान ६) अधिकरण।

तथ्य:- सम्बन्ध और सम्बोधन कारक नहीं है,इसे मात्र विभक्ति माना जाता है। 

 विभक्ति:-
सूत्र:- संख्याकारकबोधयित्री विभक्ति:।
व्याख्या:- जो कारक और वचन विशेष का बोध कराये ,उसे विभक्ति कहते है।
दूसरे शब्दों में, जिसके द्वारा कारकों और संख्याओं को विभक्त किया जाता है उसे विभक्ति कहते हैं।
विभक्ति के प्रकार :-
विभक्तियाँ सात हैं - १.प्रथमा  २.द्वितीया ३.तृतीया ४.चतुर्थी ५.पंचमी ६.षष्ठी ७.सप्तमी ।
कारक के नाम      चिह्न            विभक्ति
   कर्ता                 ने                 प्रथमा 
   कर्म                 को।               द्वितीया
   करण            से,【द्वारा】       तृतीया
  सम्प्रदान          को, के लिए        चतुर्थी
  अपादान          से ,【अलग】    पंचमी
  सम्बन्ध          का,के,की,रा,रे,री    षष्ठी
 अधिकरण           में ,पर              सप्तमी।

 कर्ता कारक
.सूत्र:- क्रियासम्पादकः कर्ता।
व्याख्या:- क्रिया का सम्पादन करने वाले को कर्ता कारक कहते हैं। कर्ता कारक का चिह्न  "ने " है।
यथा:-  वह किताब पढता है।  सः पुस्तकम् पठति।
         राधा गीत गाती है । राधा गीतं गायति।
यहाँ सः और राधा कर्ता कारक है ।

.सूत्र:- कर्तरि प्रथमा
व्याख्या:- कर्ता कारक में प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा:- राम स्कूल जाता है। रामः विद्यालयम् गच्छति।
यहाँ रामः में प्रथमा विभक्ति है ,क्योंकि राम कर्ता कारक है ।

३.सूत्र:- प्रातिपदिकार्थमात्रे प्रथमा
व्याख्या:- किसी भी शब्द का अर्थ-मात्र प्रकट करने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
यथा :- जनः (आदमी), लोकः (संसार), फलम् (फल), काकः (कौआ) आदि।

४.सूत्र :- उक्ते कर्तरि प्रथमा
व्याख्या :- कर्तृवाच्य (Active Voice)में जंहाँ कर्ता पद "कहा गया" रहता है वहाँ उसमे प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा:- राम घर जाता है । रामः गृहम् गच्छति। 

५.सूत्र:- सम्बोधने च
व्याख्या :- सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा :- हे_राम ! यहाँ आओ। हे_राम! अत्र आगच्छ ।

६.सूत्र:-अव्यययोगे प्रथमा
व्याख्या :- अव्यय के योग में प्रथमा विभक्ति होती है ।
यथा :- मोहन  कहाँ  है? मोहनः कुत्र अस्ति? 
यहाँ मोहन कर्ता नहीं है फिर भी कुत्र अव्यय होने के कारण मोहन में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ ।

७.सूत्र:-उक्ते कर्मणि प्रथमा
व्याख्या:- कर्मवाच्य (Passive Voice) में जहाँ कर्ता पद "कहा गया" रहता है , वहाँ उसमे प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा :- (क)राम के द्वारा घर जाया जाता है। रामेण गृहम् गम्यते।(ख)तुझसे साधु की सेवा की जाती है। त्वया साधुः सेव्यते। आदि।

कर्म कारक
१.सूत्र:- कर्तुरीप्सिततमम् कर्मः
व्याख्या:- कर्ता की अत्यंत इच्छा जिस काम को करने में हो उसे कर्म कारक कहते हैं।
          या, क्रिया का फल जिस पर पड़े, उसे कर्म कारक कहते हैं।
                कर्म कारक का चिह्न "को" है।
यथा :- रमेश फल खाता है । रमेशः फलम् खादति।
           मोहन दूध पिता है । मोहनः दुग्धं पिबति।
यहाँ फलम् और दुग्धं  कर्म कारक है क्योंकि फल भी इसीपर पर रहा है और कर्ता की भी अत्यन्त इच्छा भी इसी काम को करने में है।

२.सूत्र:- कर्मणि द्वितीया
व्याख्या :- कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति होती है।
यथा:- गीता चन्द्रमा को देखती है। गीता चंद्रम् पश्यति।
          मदन चिट्ठी लिखता था । मदनः पत्रं लिखति।
यहाँ चंद्रम् और पत्रं में द्वितीया विभक्ति है,क्योंकि ये दोनों कर्म कारक हैं।

३.सूत्र:-क्रियाविशेषणे द्वितीया
व्याख्या:- क्रिया की विशेषता बताने वाले  अर्थात् क्रियाविशेषण (Adverb) में द्वितिया विभक्ति होती है।
      क्रियाविशेषण- तीव्रम् , मन्दम् ,मधुरं आदि। 
यथा:- (क) बादल धीरे-धीरे गरजते है। मेघा: मन्दम्-मन्दम् गर्जन्ति। (ख) प्रकाश मधुर गाता है। प्रकाशः मधुरं गायति।(ग)वह जल्दी जाता है। सः शीघ्रं गच्छति।आदि

४.सूत्र:-अभितः परितः सर्वतः समया निकषा प्रति संयोगेऽपि द्वितिया
व्याख्या :-उभयतः,अभितः(दोनों ओर), परितः (चारों ओर), सर्वतः (सभी ओर), समया( समीप), निकषा (निकट), प्रति (की ओर) के योग में द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा:-(क) गाँव के दोनों ओर पर्वत हैं। ग्रामं अभितः पर्वताः सन्ति ।(ख) विद्यालय के चारों ओर नदी है। विद्यालयम् परितः नदी अस्ति। (ग) घर के सब ओर वृक्ष हैं। गृहम् सर्वतः वृक्षाः सन्ति। (घ) तुम्हारे घर के समीप  मंदिर है। गृहम् समया मन्दिरं अस्ति। (ङ) मंदिर की ओर चलो। मन्दिरं प्रति गच्छ। आदि

५.सूत्र:- कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे द्वितिया
व्याख्या :- कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में यदि क्रिया का अतिशय लगाव या व्याप्ति हो तो द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा :- कोस भर नदी टेढ़ी है। क्रोशम् कुटिला नदी ।
        मैं महीने भर  व्याकरण पढ़ा। अहम् मासं व्याकरणं अपठम्।

६. सूत्र:- विना योगे द्वितिया
व्याख्या:- "विना" के योग में द्वितिया विभक्ति होती है।
यथा :-(क) परिश्रम के बिना विद्या नहीं होती ।
                परिश्रमम् विना विद्या न भवति ।
          (ख) धन के बिना लाभ नहीं होता।
                 धनम् विना लाभं न भवति । आदि।
                               

 करण कारक
१.सूत्र:-साधकतमं करणं
व्याख्या:- क्रिया को करने में जो अत्यंत सहायक हो, उसे करण कारक कहते हैं।
            करण कारक का चिह्न "से (द्वारा)" है।
यथा:- (क.)राम ने रावण को तीर से मारे।
          रामः रावणं वाणेन  हतवान्।
          (ख).वह मुख से बोलता है। सः मुखेन वदति।
यहाँ मारने में "तीर" और बोलने में "मुख" सहायक है, इसलिए दोनों में करण कारक होगा।

२.सूत्र:- करणे तृतीया
व्याख्या:- करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:-(अ). मैं कलम से लिखता हूँ। अहम् कलमेन लिखामि।
         (ब.) राजा रथ से आते हैं । राजा रथेन आगच्छति।
यहाँ "कलमेन" और "रथेन" करण कारक है इसलिए दोनों में तृतीया विभक्ति होई।

३.सूत्र:- सहार्थे तृतीया
व्याख्या:- "सह (साथ)" शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। (सह, साकम्, सार्धम् समम्=साथ)
यथा:- (a.)राम के साथ सीता वन गई।
         रामेण सह सीता वनम् अगच्छत।
         (b.) रमेश मित्र के साथ खेलता है ।
          रमेशः मित्रेन् सह क्रीडति।
        (c.)मैं सीता के साथ जाता हूँ।
         अहम् सीतया सार्धम् गच्छामि। आदि

४.सूत्र:- अपवर्गे तृतीया
व्याख्या:- अपवर्ग अर्थात् कार्य समाप्ति या फल प्राप्ति के अर्थ में कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- (अ)वह एक वर्ष में व्याकरण पढ़ लिया।
          सः वर्षेण व्याकरणं अपठत्। (कालवाचक)
          (ब)मैंने तीन कोस में कहानी कह दी।
             अहम् क्रोशत्रयेण कथां अकथयम्।

५.सूत्र:-हेतौ तृतीया
व्याख्या:- हेतु या कारण का अर्थ होने पर तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- वह कष्ट से रोता है। सः कष्टेन रोदिति।
        लड़का हर्ष से हँसता है। बालकः हर्षेण हसति।

६.सूत्र:-ऊनवारणप्रायोजनार्तेषु तृतीया
व्याख्या:- ऊन(हीन) ,वारण (निषेध) और प्रयोजनार्थक  शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- 1. एक कम - एकेन हीनः।
         2. कलह मत करो- कलहेन अलम्।
         3. राम के समान - रामेण तुल्यः।
         4. कृष्ण के समान - कृष्णेन सदृशः। आदि

७.सूत्र:-येनाङ्गविकारः
व्याख्या:-जिस अंगवाचक शब्दों से विकार का ज्ञान प्राप्त हो , उस विकार रूपी अंग में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:- मोहन पैर से लाँगड़ा है। मोहनः पादेन खञ्जः।
       सीता पीठ से कुबड़ी है । सीता पृष्ठेन कुब्जा ।
       वह आँख से अँधा है। सः नयनाभ्याम् अंधः।
       सुरेश कान से बहरा है। सुरेशः कर्णाभ्याम् बधिरः।

८.सूत्र:-इत्थंभूत लक्षणे तृतीया
व्याख्या:- जिस लक्षण विशेष से कोई वस्तु या व्यक्ति पहचानी जाती हो , उस लक्षणविशेष वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:-     1.वह जटाओं से तपस्वी मालुम पड़ता है।
             सः जटाभिः तापसः प्रतीयते।
             2.सोहन चन्दन से ब्राह्माण मालुम पड़ता है।
             सोहनः चंदनेन ब्राह्मणः प्रतीयते।

९.सूत्र:-अनुक्ते कर्तरि तृतीया
व्याख्या:- कर्मवाच्य और भाववाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है।
यथा:-(अ) राम के द्वारा रावण मारा गया।
          रामेण रावणः हतः।
        ( ब) मेरे द्वारा हंसा गया।
            मया हस्यते।
                        

 सम्प्रदान कारक

१.सूत्र:- कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानं
व्याख्या:- जिसके लिए कोई क्रिया (काम )की जाती है, उसे सम्प्रदान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिसके लिए कुछ किया जाय या जिसको कुछ दिया जाय, इसका बोध कराने वाले शब्द के रूप को सम्प्रदान कारक कहते है। 
          इसकी विभक्ति चिह्न'को' और 'के लिए' है।
यथा:- (क).माता बालक को लड्डू देती है।
                माता बालकाय मोदकम् ददाति ।
          (ख).राजा ब्राह्मण को वस्त्र देते हैं।
                  राजा  विप्राय वस्त्रं ददाति।

२. सूत्र:-सम्प्रदाने चतुर्थी
व्याख्या:- सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- वह गरीबों को अन्न देता है।
         सः निर्धनेभ्यः अन्नम् ददाति ।
यहाँ गरीब के लिए क्रिया की जाती है और साथ हीं गरीब को अन्न भी दिया जा रहा है इसलिए यह सम्प्रदान कारक है और सम्प्रदान कारक होने के कारण "गरीब" में चतुर्थी विभक्ति हुआ ।

३.सूत्र:- रुच्यार्थानां प्रीयमाणः
व्याख्या:-  "रुच्" (अच्छा लगना) धातु के योग में जिस व्यक्ति को कोई चीज अच्छी लगती हो , उस अच्छी लगने वाले वास्तु में चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- मुझे मिठाई अच्छी लगती है।
       मह्यम् मिष्ठानं रोचते ।
          गणेश को लड्डू पसंद है।
         गणेशाय मोदकम् रोचते ।
          हरि को भक्ति अच्छी लगती है।
       हरये भक्तिः रोचते।

४.सूत्र:- नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाsलंवषट् योगाच्च
व्याख्या:- नमः(प्रणाम), स्वस्ति (कल्याण हो), स्वाहा ,स्वधा (समर्पित), अलम् (पर्याप्त), आदि के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- सरस्वती को प्रणाम । सरस्वत्यै नमः।
          शिव को नमस्कार । शिवाय नमः।
         लोगों का कल्याण हो । जनेभ्यः स्वस्ति।
         गणेश को समर्पित । गणेशाय स्वाहा ।
         पितरों को समर्पित । पितरेभ्यः स्वस्ति।
राम रावण के लिए पर्याप्त हैं। रामः रावणाय अलम्।

५.सूत्र:-  क्रुधद्रुहेर्ष्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः
व्याख्या:- क्रुध्, द्रुह्, ईर्ष्या,असूया अर्थवाची क्रियाओं के योग में जो इनका विषय होता है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.मालिक नौकर पर क्रोध करता है।
         स्वामी भृत्याय क्रुध्यति।
       2.  वेलोग रमेश से द्रोह करता है।
         ते रमेशाय द्रुह्यन्ति/ आसूयन्ति/ इर्ष्यन्ति।
 
अपादान कारक 

1.सूत्र:- ध्रुवमपायेऽपादानम्
व्याख्या:- जिस निश्चित स्थान से कोई वस्तु या व्यक्ति अलग होती है, उस निश्चित स्थान को अपादान कारक कहते हैं।
        अपादान कारक का विभक्ति चिह्न  "से ( अलग)" होता है।
 यथा :- 1.वह घर से आता है।  सः गृहात् आगच्छति ।
2.पेड़ से पत्ते गिरते हैं। वृक्षात् पत्राणि पतन्ति।
यहाँ "गृहात्"और "वृक्षात्" अपादान कारक है ,क्योंकि ये दोनों निश्चित स्थान है जिससे क्रमशः व्यक्ति और वस्तु अलग हो रही है।

२.सूत्र:- अपादाने पंचमी
व्याख्या:- अपादान कारक में पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- क्षेत्रपाल खेत से गाय हाँकता है।
 क्षेत्रपालः क्षेत्रात् गाः वारयति।

३.सूत्र:-बहिर्योगे पंचमी
व्याख्या:- बहिः (बाहर) अव्यय के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।
यथा:-1. गृहात् बहिः वाटिका अस्ति ।घर के बहार बगीचा है। ,
2.सः गृहात् बहिर् गतः। 
वह घर से बाहर गया। आदि।

४.सूत्र:- ऋते योगे पंचमी
व्याख्या:-  ऋते के योग में भी पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:-
1. ज्ञानात् ऋते न मुक्तिः । ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं।
2.कृष्णात् ऋते न सुखम् । कृष्ण के बिना सुख नहीं।

५.सूत्र:- भित्रार्थानां भयहेतुः
व्याख्या:- भी( डरना) और त्रा (बचाना) धातु के योग में जिससे भय या रक्षा की जाए ,उसमे पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.मोहन साँप से डरता है। मोहनः सर्पात् विभेति।
2.गुरु शिष्य को पाप से बचाते हैं। गुरु शिष्यं पापात् त्रायते।

६. सूत्र:-अख्यातोपयोगे पंचमी
व्याख्या:- जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाती है , उसमे पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:-1. वह मुझसे व्याकरण पढता है। सः मत् व्याकरणं अधीते।
2.वह राम से कथा सुनता है। सः रामात् कथां शृणोति।

७.सूत्र:- भुवः प्रभवः च।
व्याख्या:- "भू" धातु के योग में जंहाँ से कोई चीज उत्पन्न होती है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- गंगा हिमालय से निकलती है।
 गंगा हिमालयात् प्रभवति।

८.सूत्र:- अपेक्षार्थे पञ्चमी
व्याख्या:- तुलना में  जिसे श्रेष्ठ बनाया जाए उसमे  पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
    जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसि।
   2.विद्या धन से  बढ़कर है।विद्या धनात् गारीयसि।

९.सूत्र:- पर पूर्व योगे पंचमी
व्याख्या:-परः(बाद में होने वाला) तथा पूर्व: (पहले होने वाला) के योग में पंचमी विभक्ति होती है।
यथा:- चैत्रः वैशाखात् पूर्व:। वैशाखः चैत्रात् परः। आदि।

 अधिकरणकारक

२.सुत्र:-आधारोऽधिकरणः -
व्याख्या:- क्रिया का जो आधार  हो उसे अधिकरण कारक कहते हैं।
यथा:- 3.वह भूमि पर सोता है। सः भूमौ शेते।
         2.लड़के विद्यालय में पढ़ते हैं। 
            बालकाः विद्यालये पठन्ति ।
         3. मैं नदी में तैरता हूँ । अहम् नद्याम् तरामि।

२. सूत्र:- अधिकरणे सप्तमी
व्याख्या:- अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा:-1. वेलोग गांव में रहते हैं। ते ग्रामे वसन्ति।
         2.सिंह वन में घूमता है। सिंहः वने भ्रमति ।
         3. मैं 10 बजे स्कुल जाता हूँ । 
             अहम् दशवादने विद्यालयं गच्छामि।
       4. राम सुबह मे 5 बजे उठता है।
           रामः प्रातःकाले पंचवादने उतिष्ठति। 

३.सूत्र:- निर्धारणेसप्तमी
व्याख्या:- अधिक वस्तुओं या व्यक्तियों में किसी एक की विशेषता बताने पर , उस एक में सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1. कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है।
              कविषु कालिदासः श्रेष्ठः ।
           2.  जीवों में मानवलोग  श्रेष्ठ हैं।
                 जीवेषु मानवाः श्रेष्ठा: ।
          3.  फूलों में कमल श्रेष्ठ  है।
                  पुष्पेषु कमलं श्रेष्ठम् ।
          4. ऋषियों में वाल्मीकि श्रेष्ठ हैं ।
              ऋषिषु वाल्मीकिः श्रेष्ठः।

४.सूत्र:-कुशलनिपुणप्रविनपण्डितश्च योगे सप्तमी
  व्याख्या:- जिसमें कार्य में  कोई व्यक्ति कुशल , निपुण ,प्रवीण , पंडित हो उसमें सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.मेरा दोस्त गाड़ी चलाने में कुशल है।
         मम मित्रः वाहनचालने कुशलः।
         2.कृष्ण वंशी बजाने में प्रवीण हैं ।
         श्री

कृष्णः वंशीवादने प्रवीणः।
         3. अर्जुन धनुर्विद्या में निपुण है।
          अर्जुनः धनुर्विद्यायाम् निपुणः।
        4. मेरी पत्नी खाना बनाने में कुशल है।
           मम भार्या भोजनस्य पाचने  कुशला ।
        5. मोहन शास्त्र का  पंडित है।
          मोहनः शस्त्रे पण्डितः अस्ति ।

५.सूत्र:-अभिलाषानुरागस्नेहासक्ति योगे सप्तमी
व्याख्या:- जिसमें मनुष्य की अभिलाषा ,अनुराग, स्नेह या आसक्ति हो उसमें सप्तमी विभक्ति होती हैं।
यथा:- 1.बालकस्य आम्रफले अभिलाषः।
          2.मम संस्कृत आसक्तिः । 
          3.धेनो: वत्से स्नेहः ।
          4.प्रजानां राज्ञि अनुरागः। आदि

 सम्बन्ध कारक

१.सूत्र:-षष्ठी शेषे
व्याख्या:- कारक और शब्दों को छोड़कर अन्य सम्बन्ध "शेष" कहलाते हैं।
           सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा:- 1.राजा का महल - नृपस्य भवनं ।
          2. राम का पुत्र - रामस्य पुत्रः ।

२.सूत्र:- षष्ठी हेतु प्रयोगे
व्याख्या:- "हेतु" शब्द का प्रयोग होने पर कारणवाची शब्द और "हेतु" शब्द दोनों में ही षष्ठी विभक्ति होती है ।
यथा:-  1.वह अन्न के लिए रहता है। सः अन्नस्य हेतोः वसति।
          2. "अल्पस्यहेतोर्बहु हातुमिच्छन् , 
           विचारमुढ: प्रतिभासि में त्वम्।"
         (छोटी सी चीज के लिए बहुत बड़ा त्याग कर रहे       हो ,मेरी समझ में तुम मुर्ख हो।)

३.सूत्र:- षष्ठी चानादरे
व्याख्या:- जिसका अनादर करके कोई काम किया जाय उसमें षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति होती  है।
यथा:-  गुरोः पश्यत छात्रः कक्षतः बहिः अगच्छत्।
          रुदतः शिशो: माता बहिः अगच्छत्।

४.सूत्र:- निर्धारणे षष्ठी। 
व्याख्या :- अनेक वस्तुओं अथवा व्यक्तियों  में जिसको श्रेष्ठ या विशेष बताया जाए उसमे षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा:- १. बालकों में रवि श्रेष्ठ है । बालकानाम् रवि श्रेष्ठ:।
         २ कवियों में कालिदास श्रेष्ठ हैं । 
             कविषु कालिदासः श्रेष्ठ: ।
          ३.फूलों में कमल श्रेष्ठ है । पुष्पानां श्रेष्ठं कमलं।

५. सूत्र:- षष्ठ्यतसर्थम्प्रत्ययेन षष्ठी
व्याख्या :- " तस्" प्रत्यायन्त शब्दों  (पुरतः ,पृष्ठतः, अग्रतः, उपरी, अधः,पूर्वतः, पश्चिमतः , दक्षिणतः ,वामतः ,अंतः  आदि) के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा:- १.भारतस्य दक्षिणतः विवेकानन्दस्मारकः अस्ति।
         २. भारतस्य उत्तरतः हिमालयः विराजते ।
         ३. भूमेः अधः जलं अस्ति ।
         ४. सैनिकस्य वामतः नेता अस्ति।
         ५. पर्वतस्य पुरतः मेघा: गर्जन्ति।
        ६. फलस्य अंतः बिजानि सन्ति ।

६. सूत्र:- कर्तृ कर्मणो: कृतिः।
व्याख्या:- कृदन्त शब्द के योग में कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है।
यथा:- 1.कृष्णस्य कृतिः( कृष्ण का कार्य)
          2.वेदस्य अध्येता ( वेद पढ़नेवाला )।।      

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

उन्नीस ऊंटों की कहानी

19 ऊंट की कहानी

एक गाँव में एक व्यक्ति के पास 19 ऊंट थे। 

एक दिन उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। 

मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गयी। जिसमें लिखा था कि:

मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को,19 ऊंटों में से एक चौथाई मेरी बेटी को, और 19 ऊंटों में से पांचवाँ हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएँ।

सब लोग चक्कर में पड़ गए कि ये बँटवारा कैसे हो ?

19 ऊंटों का आधा अर्थात एक ऊँट काटना पड़ेगा, फिर तो ऊँट ही मर जायेगा। चलो एक को काट दिया तो बचे 18 उनका एक चौथाई साढ़े चार- साढ़े चार. फिर?

सब बड़ी उलझन में थे। फिर पड़ोस के गांव से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया।

वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़ कर आया, समस्या सुनी, थोडा दिमाग लगाया, फिर बोला इन 19 ऊंटों में मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो।

सबने सोचा कि एक तो मरने वाला पागल था, जो ऐसी वसीयत कर के चला गया, और अब ये दूसरा पागल आ गया जो बोलता है कि उनमें मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो। फिर भी सब ने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है।

19+1=20 हुए।

20 का आधा 10, बेटे को दे दिए।

20 का चौथाई 5, बेटी को दे दिए।

20 का पांचवाँ हिस्सा 4, नौकर को दे दिए।

10+5+4=19 

बच गया एक ऊँट, जो बुद्धिमान व्यक्ति का था...

वो उसे लेकर अपने गॉंव लौट गया।

इस तरह 1 उंट मिलाने से, बाकी 19 उंटो का बंटवारा सुख, शांति, संतोष व आनंद से हो गया।

सो हम सब के जीवन में भी 19 ऊंट होते हैं।

5 ज्ञानेंद्रियाँ
(आँख, नाक, जीभ, कान, त्वचा)

5 कर्मेन्द्रियाँ
(हाथ, पैर, जीभ, मूत्र द्वार, मलद्वार)

5 प्राण
(प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान)

और

4 अंतःकरण
(मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)

कुल 19 ऊँट होते हैं। 

सारा जीवन मनुष्य इन्हीं 19 ऊँटो के बँटवारे में उलझा रहता है।

और जब तक उसमें मित्र रूपी ऊँट नहीं मिलाया जाता यानी के दोस्तों के साथ.... सगे-संबंधियों के साथ जीवन नहीं जिया जाता, तब तक सुख, शांति, संतोष व आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।

यह है 19 ऊंट की कहानी...

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

१. एहि हसाम


२. 


३.

स्वागत—गीतम्

स्वागत—गीतम्

महामहनीय मेधाविन्, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः।
गुरो गीर्वाणभाषायाः, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः।।
दिनं नो धन्यतममेतत्, इयं मंङ्गलमयी वेला।
वयं यद् बालका एते, त्वदीयं स्वागतम् कुर्मः॥
न काचिद् भावना भक्तिः, न काचित् साधना शक्तिः।
परं श्रद्धा-सुमाञ्जलिभिः, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः।
किमधिकं ब्रूमहे श्रीमन् निवेदनमेतदेवैकम्।
न बाला विस्मृतिं नेयाः त्वदीयं स्वागतं कुर्मः॥

हास्यकणिकाः

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

संस्कृत भाषा की महानता एवं उपयोगिता

#संस्कृत_भाषा_की_महानता_एवं_उपयोगिता।
           #संस्कृत में 1700 धातुएं, 70 प्रत्यय और 80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी संख्या 27 लाख 20 हजार होती है। यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है। संस्कृत इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे प्राचीन भाषा है और सबसे वैज्ञानिक भाषा भी है। इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं। भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।

 ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं । किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत दोष दिखते हैं । ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।

  तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा?
शब्दों का आधार ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था ।
उदाहरणार्थ कुछ लोग कहते है कि अग्नि का आविष्कार फलाने समय में हुआ।

   तो क्या उससे पहले अग्नि न थी महानुभावों? अग्नि तो धरती के जन्म से ही है किन्तु उसका ज्ञान निश्चित समय पर हुआ। इसी प्रकार शब्द व ध्वनि थे किन्तु उनका ज्ञान न था । तब उन प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती हैं और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती हैं । जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः प्राचीनतम आर्य भाषा जो ब्रह्मांडीय संगीत थी उसका नाम "संस्कृत" पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात श्वासों से निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर-संप्रक से अभिव्यक्त हुयी।

 कालांतर में पाणिनी ने नियमित व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया। पाणिनीय व्याकरण ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठभेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषाविदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।

 संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरंभ कराया है और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।
   नासा को हमने खड़ा नहीं किया है अपनी तारीफ करवाने के लिए…नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व क्या है पढ़ लो ।

 काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे खरपतवार पैदा हो रहे हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष व विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं ।

 अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश में हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।

 आज दुनिया भर में लगभग 6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन भाषाओं की जननी कौन है?

 नहीं?

 कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।
 दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है :- संस्कृत भाषा ।

 आइये जाने संस्कृत भाषा का महत्व :
संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-

 मूलाधार चक्र – स्वर 'अ' एवं क वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
        स्वर 'इ' तथा च वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत  करता है।
        स्वर  'ऋ' तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
       स्वर  'लृ' तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
        स्वर 'उ' तथा प वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
    ईषत्  स्पृष्ट  वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता  है।
     ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से

 सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस प्रकार देवनागरी लिपि के  प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है। 

 उदाहरणार्थ जब 'राम' शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। 'कृष्ण' का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि चक्र को सक्रिय करता है। 'सोह्म' का उच्चारण दोनों 'अनाहत' एवं 'मणिपूरक' चक्रों को सक्रिय करता है।

 वैदिक मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।

 भारतीय शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं । प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।

 संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है। ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है। जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।

 संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:- 1. अनुस्वार (अं ) और विसर्ग (अ:): संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं -यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं-यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।

 विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा । जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- " राम फल खाता है"इसको संस्कृत में बोला जायेगा- " राम: फलं खादति"=राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है। संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना होता है ।

 2.शब्द-रूप:-संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- यथा:- रम् (मूल धातु)-राम: रामौ रामा:;रामं रामौ रामान् ;रामेण रामाभ्यां रामै:; रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: ;रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:; रामस्य रामयो: रामाणां; रामे रामयो: रामेषु ;हे राम ! हेरामौ ! हे रामा : ।ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

 जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है। सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं -आत्मा (पुरुष), (अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश।

 3.द्विवचन:-संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है। जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।

 4. सन्धि:-संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।"इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।

 यथा:- 1 इत्यहं जानामि। 2 अहमिति जानामि। 3 जानाम्यहमिति । 4 जानामीत्यहम्। इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है। इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।

 अमरभाषा है संस्कृत
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है।

 संस्कृत के एक वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है। इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है। ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है। पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं ।
इस कारण संस्कृत में वस्तुओं के नाम उसका गुण आदि प्रकट करते हैं। जैसे हृदय शब्द। हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।

 अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन संस्कृत शब्द इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है। बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।
अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है। हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है। इस सिद्धांत की खोज हार्वे ने 1922 में की थी, जिसे हृदय शब्द स्वयं लाखों वर्षों से उजागर कर रहा था ।

 संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है, इसलिए इसमें हरेक चिन्ह के लिए एक और केवल एक ही ध्वनि है।

 देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि संस्कारित भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं।

 विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं। सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। इसे कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि के लिए सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है। 

 संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं।  इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है। वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है। संस्कृत केवल एक भाषा मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है। संस्कृत एक भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक संस्कृति है और संस्कार भी है। संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है और वसुधैव कुटुंबकम की भावना भी||

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

सूक्तयः।

१. प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता।५.१
२. न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्षते। ५.१६
३. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। ५.३३
४. कः करं प्रसारयेत्पन्नगरत्नसूचये। ५.४३
६. न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्। ५.४५
७. मनोरथानामगतिर्न विद्यते। ५.६४
८. अपेक्ष्यते साधुजनेन वैदिकी श्मशानशूलस्य न यूपसत्क्रिया। ५.७३
९. अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकं द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्। ५.७५
१०. न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते। ५.८२
११. न केवलं यो महतोSपभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक्। ५.८३
१२. क्लेशः फलेन हि पुनर्नवता विद्यते। ५.८६

हास्यकणिका

         १.    एकदा उपाहारगृहे उपविश्य चायं पिबन्नासम्। तदानीम् एका सुन्दरी तरुणी मम समीपम् आगत्य अपृच्छत्।। 

         #_Are_you_Single_!?  👩

        आम् आम् इति झटिति सोत्साहं प्रत्युत्तरं दत्तवान्।। 

        मन्निकटस्थम् आसन्दं नीत्वा सा अन्यत्र गतवती!!  

        कथा समाप्ता!!

       २.   हास्य_कणिका।

आरक्षकः- (बन्दीपालम् उद्दिश्य) श्रीमन्! एका महती समस्या अभवत्! 

बन्दीपालः- किम् अभवत्? 

आरक्षकः- कारागारे ये अपराधिनः आसन् ते सर्वे मिलित्वा ह्यः रामायणस्य नाटकं कृतवन्तः आसन्! 

बन्दीपाल:- अस्तु समीचीनम्! परन्तु तत्र का समस्या? 

आरक्षकः- श्रीमन्! लक्ष्मणस्य प्राणान् रक्षणाय औषधम् आनेतुं यः हिमालयं गतवान् आसीत् सः अधुनापि न प्रत्यागतवान्।

बन्दीपाल:- किम्? कुत्र गतः स अपराधी? शीघ्रं गत्वा तम् आनयतु!


     ३. शिक्षकः - पृथिव्याः अक्षरेखा एका काल्पनिकी रेखा । तत्र वस्त्राणि प्रसारयितुं न शक्यन्ते इति जानन्ति वा भवन्तः ?
एकः छात्रः- परन्तु महोदय !तत्र काल्पनिकानि वस्त्राणि तु प्रसारयितुं शक्यानि एव ननु ? 

     ४. वैद्यः - भवतः कर्णयोः चिकित्सा मया अतीव सम्यक्तया कृता अस्ति । इदानीं भवान् सम्यक् रूपेण श्रोतुं शक्नोति, अत्र न कापि समस्या ।
रोगी- वैद्यमहोदय ! भवान् माम् उद्दिश्य इदानीं किमपि उक्तवान् किम् ? 

      ५. वस्तु विक्रेता - गृहस्वामी गृहे अस्ति वा ?
तद्गृहस्य बालः- अहं दुःखितः, पिता गृहे नास्ति ।
वस्तुविक्रेता - परन्तु त्वं किमर्थं दुःखितः ?
बालः - कारणम्, असत्यं वचनं मह्यं न रोचते । इति । 
                         

सुभाषितानि

गुणैरुत्तमतांयाति
          नोच्चैरासनसंस्थित: ।
प्रासादशिखरस्थोपि
          काक: किं गरुडायते ।।

            #भावार्थ- एक व्यक्ति का मूल्य या उस की उत्तमता उस के स्थान या स्थितिद्वारा निर्धारित नहीं होती बल्कि उस के गुणोंद्वारा निर्धारित होती हैं । राजमहाल की उंचाई पर बैठने से क्या कौवा गरुड नहीं हो जाता हैं ?

Worth or excellence of a person is not determined by one’s location or status but by his/her qualities . For instance , will a crow become an eagle by merely sitting on the top of a palace ?

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणस्यति।।
(#गीता, द्वितीय अध्याय, श्लोक 62-63)

#अर्थ: विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए कोशिश करें कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहा जाए।   
  और क्रोध से संमोह होता है, संमोह से स्मृतिविभ्रम, विभ्रम से बुद्धिनाश, और बुद्धिनाश से इंसान का पतन हो जाता है।

अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं
देहप्रतिष्ठितम्।
मोहादापद्यते मॄत्यु:
सत्येनापद्यतेऽमॄतम्॥
 
अमरता और मॄत्यु दोनों एक ही शरीर में निवास करती हैं, मोह से मॄत्यु प्राप्त होती है और सत्य से अमरत्व॥ 

Immortality and Death both reside in the body only. Death is attained due to delusion and Immortality by truth.

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा !
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् !!

#हिन्दी_अर्थ:- किसी के स्वभाव या आदत को सिर्फ सलाह देकर बदलना संभव नहीं है, जैसे पानी को गरम करने पर वह गरम तो हो जाता है लेकिन पुनः स्वयं ठंडा हो जाता है ।

दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु लीनं दिवाभीतमिवा$न्धकारम्।।
क्षुद्रेपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव।। कुमा.१.१२

तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्नमनोरथा सती।
निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती #प्रियेषु_सौभाग्यफला_हि_चारुता।
 
#हिन्दी_अर्थ- इस प्रकार अपनी आंखों के सामने ही शंकर जी के द्वारा कामदेव को जलाते हुए देखकर पार्वतीजी की अभिलाषा चूर-चूर हो गयी। वह अपने रूप को धिक्कारने लगी। क्योंकि सौन्दर्य की सफलता तभी है जब उससे प्रिय को मुग्ध किया जा सके।।

कुमारसम्भवम्.०१.०५

कृताभिषेकां हुतजातवेदसं त्वगुत्तरासड्ग़वतीमधीतिनीम्।
दिदृक्षवस्तामृषयोSभ्युपागमन्  #न_धर्मवृद्धेषु_वयः_समीक्ष्यते।। कुमारसम्भवम्!१६.०५

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वा युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।। मनुस्मृति.।।

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगूहति गुणान्  प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति  सन्ता।।

अर्थात- एक सच्चे मित्र के लक्षण हैं कि वह हमें पापकर्म करने से रोकता है, हमारे हित के कार्यों को करने के लिये प्रेरित करता है, हमारी गोपनीय बातों को प्रकट नहीं करता है, आपत्ति के समय में भी हमारा साथ नहीं छोडता है, तथा आवश्यकता पडने पर सहायता के लिये तत्पर रहता है।
कर्ममाहात्म्यम्

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, 
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । 
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः, 
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ॥ 
-भर्तृहरिणा, नीतिशतकात्

सरलसंस्कृतार्थ :- कर्मवशादेव ब्रह्मा कुम्भकारवत् सृष्टिकार्यं निरमपयति, विष्णुश्च दशसु अवतारेषु कष्टं सहते । शिवश्च कपालजटितेन पाणिना हस्तेन वा भिक्षार्थं पर्यटति । दिवाकरोऽपि गगने सततं भ्रमति । येन कर्मणा एतेऽपि नियोजिताः तं कर्मम् अवश्यं नमस्करणीयम् ।

हिन्दीसरलार्थ :- जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्माण्डरूपी पात्र के अन्दर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्टतम कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरन्तर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है ।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् |
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ||

#भावार्थ-
नीति-निपुण विद्वान चाहे निंदा करें या प्रशंसा। लक्ष्मी आएं अथवा इच्छानुसार चली जाएं। आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो, परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय-पथ से विचलित नहीं होते।

Worldly-wise may insult or praise. Wealth may come or go by itself. They may die today or may live for hundred years but men of patience never divert from the path of justice.

पित्रा प्रताडितः पुत्रःशिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण यथा भूषणमेव   जायते ।।

भावार्थ--
पिता के द्वारा डांटा गया पुत्र,
गुरु के द्वारा डांटा गया शिष्य तथा
सुनार के द्वारा पीटा गया सोना
ये सब आभूषण ही बनते हैं।

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां् रता:।।

भावार्थः- यो मानवः भोगेषु असक्तो भुत्त्वा तस्य प्राप्ते: साधनरूप-अविद्याया: विविधकर्मणामनुष्ठानं करोति, सः तेषां कर्मणां फलस्वरूपमज्ञानान्धकारेण परिपूर्णविविधयोनयः भोगान् च प्राप्तो भवति। सः मानवः जन्मनः चारमोत्कृष्टलक्ष्यं श्रीपरमेश्वरं न प्राप्य निरन्तरं जन्ममृत्युरूपसंसारस्य प्रवाहे पतितो सन् विविधसन्तापै: सन्तप्तो भवतीति। 
            अपरे ये मानवा: न तु अन्तःकरणस्य शुद्धयर्थं कर्तृत्वभावस्य अभिमानेन रहितकर्मणामनुष्ठानं कुर्वन्ति, तथा नैव विवेकावैराज्ञादिज्ञानस्य प्राथमिकसाधनानामेव सेवनं कुर्वन्ति, परंतु केवलं शास्त्रान् पठितत्वा श्रुत्त्वा च स्वज्ञानस्य मिथ्यारोपं कृत्त्वा ज्ञानाभिमानिन: भवन्ति। एतादृशः ज्ञानाभिमानिन: चिन्तयन्ति यत अस्माकं कृते किमपि कर्तव्यं नास्ति एवं विचिन्त्य ते स्वकर्तव्यानां त्यागं कुर्वन्ति, तथा इन्द्रियाणां स्वाभिप्रायं स्वीकृत्य शास्त्रविरुद्धाचारणं प्रारब्धयन्ति। अतः ते एव कूकर-शूकरादिषु च निकृष्टयोनिषु जन्म प्राप्नुवन्ति।

नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभारणं गुण:।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥
                अर्थात् - : मनुष्य का आभूषण उसका रूप होता है, रूप का आभूषण गुण होता है। गुण का आभूषण ज्ञान होता है और ज्ञान का आभूषण क्षमा होता है।अर्थात् रूपवान् होना भी तभी सार्थक है जब सच्चे गुण, सच्चा ज्ञान और क्षमा मनुष्य के भीतर हो।।

स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम् ।
परिवर्तिनि संसारे मृत: को वा न जायते।।

Who has not died after taking birth in this ever changing world? He alone is considered as born who makes his dynasty prosperous.

इस बदलते संसार में कौन ऐसा है जो जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है। जन्म लेना उसका ही सफल है जिससे उसका वंश उन्नति को प्राप्त हो॥

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥

अर्थः-  के हितार्थ एक का त्याग करना, गाँव के हितार्थ कुल का, देश के हितार्थ गाँव का और आत्म कल्याण के लिए पृथ्वी का त्याग करना चाहिए ।

अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ।।


 अर्थ: - यह मेरा है, वह उसका है, जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं ।। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण वसुंधरा के लोग कुटुम्ब समान हैं ।।





रविवार, 8 दिसंबर 2019

सत्क्रिया की महिमा

या साधूंश्च खलाकरोति विदुषो मूर्खान्हितांव्देषिणः।
प्रत्यक्ष कुरूते परोक्षममृतं हालाहलं तत्क्षणात्।। 
तामाराधय सत्क्रियां भगवती भोक्तुं फलं वाञ्छितम्।
हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वायास्थां वृथा माकृथा।।
 अर्थः - जो सत्किया दुष्टों को साधुता देती है, मूर्खों को पण्डितता, शत्रुओं को मित्रता, गुप्त बातों को प्रगट और विष को अमृत बनाती है। हे साधो! यदि वांछित फल भोगना चाहते हो तो हठ और कष्ट  से अनेक गुणों के साधन में व्यर्थ समय नष्ट  न करो बल्कि उसी सत्किया रूपी भगवती की आराधना करो अर्थात्  श्रेष्ठ आचरण वाले बनो।

गीतायां मूलप्रवृत्तिसिद्धान्तः

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।। (गी.18/48)        

     अर्थ:- स्वभावतः प्राप्तानि दोषयुक्तानि कर्माणि न त्यक्तव्यानि भवन्ति। यथा अग्निना सह धूमस्य संयोगः भवति तथा सर्वाणि कर्माणि अपि दोषैः आवृतानि भवन्ति।
      
         भगवद्गीतायाः आधारेण संस्तुतः शिक्षाशास्त्रीयः "मूलप्रवृत्तिसिद्धान्तः" एव  छात्रान् शिक्षणपरिवेशं प्रति आनेतुम् अभिप्रेरणदृष्ट्या उपकरोति।

कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे 200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन -

कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे 200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन -
          द्रौपदी का एक ही पति था- युधिष्ठिर

_जर्मन के संस्कृत जानकार मैक्स मूलर को जब विलियम हंटर की कमेटी के कहने पर वैदिक धर्म के आर्य ग्रंथों को बिगाड़ने का जिम्मा सौंपा गया तो उसमे मनु स्मृति, रामायण, वेद के साथ साथ महाभारत के चरित्रों को बिगाड़ कर दिखाने का भी काम किया गया। किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी पात्र - चरित्रों में विक्षेप करके उसमे झूठ का तड़का लगाकर महानायकों को चरित्रहीन, दुश्चरित्र, अधर्मी सिद्ध करना था, जिससे भारतीय जनमानस के हृदय में अपने ग्रंथो और महान पवित्र चरित्रों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जाग जाय और प्राचीन आर्य संस्कृति सभ्यता को निम्न दृष्टि से देखने लगें और फिर वैदिक धर्म से आस्था और विश्वास समाप्त हो जाय। लेकिन आर्य नागरिको के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि मूल महाभारत के अध्ययन बाद सबके सामने द्रोपदी के पाँच पति के दुष्प्रचार का सप्रमाण खण्डन किया जा रहा है। द्रोपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजो के हर दुष्प्रचार  और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।_
अब ध्यानपूर्वक पढ़ें---

विवाह का विवाद क्यों पैदा हुआ था:--

(१) अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। यदि उससे विवाह हो जाता तो कोई परेशानी न होती। वह तो स्वयंवर की घोषणा के अनुरुप ही होता।

(२) परन्तु इस विवाह के लिए कुन्ती कतई तैयार नहीं थी।

(३) अर्जुन ने भी इस विवाह से इन्कार कर दिया था। "बड़े भाई से पहले छोटे का विवाह हो जाए यह तो पाप है। अधर्म है।" (भवान् निवेशय प्रथमं)

मा मा नरेन्द्र त्वमधर्मभाजंकृथा न धर्मोsयमशिष्टः (१९०-८)

(४) कुन्ती मां थी। यदि अर्जुन का विवाह भी हो जाता,भीम का तो पहले ही हिडम्बा से (हिडम्बा की ही चाहना के कारण) हो गया था। तो सारे देश में यह बात स्वतः प्रसिद्ध हो जाती कि निश्चय ही युधिष्ठिर में ऐसा कोई दोष है जिसके कारण उसका विवाह नहीं हो सकता।

(५) आप स्वयं निर्णय करें कुन्ती की इस सोच में क्या भूल है? वह माता है, अपने बच्चों का हित उससे अधिक कौन सोच सकता है? इसलिए माता कुन्ती चाहती थी और सारे पाण्डव भी यही चाहते थे कि विवाह युधिष्ठिर से हो जाए।

प्रश्न:-क्या कोई ऐसा प्रमाण है जिसमें द्रौपदी ने अपने को केवल एक की पत्नी कहा हो या अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बताया हो ?

उत्तर:-

(1)-द्रौपदी को कीचक ने परेशान कर दिया तो दुःखी द्रौपदी भीम के पास आई। उदास थी। भीम ने पूछा सब कुशल तो है? द्रौपदी बोली जिस स्त्री का पति राजा युधिष्ठिर हो वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव है?

आशोच्यत्वं कुतस्यस्य यस्य भर्ता युधिष्ठिरः ।
जानन् सर्वाणि दुःखानि कि मां त्वं परिपृच्छसि ।।-(विराट १८/१)

_द्रौपदी स्वयं को केवल युधिष्ठिर की पत्नि बता रही है।_

(2)- वह भीम से कहती है- जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों,जो इन सबसे घिरी हो तथा सब प्रकार अभ्युदयशील हो, ऐसी स्थिति में मेरे सिवा और दूसरी कौन सी स्त्री दुःख भोगने के लिए विवश हुई होगी-

भ्रातृभिः श्वसुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता ।
एवं सुमुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ।।-(२०-१३)

द्रौपदी स्वयं कहती है उसके बहुत से भाई हैं, बहुत से श्वसुर हैं, बहुत से पुत्र भी हैं,फिर भी वह दुःखी है। यदि बहुत से पति होते तो सबसे पहले यही कहती कि जिसके पाँच-पाँच पति हैं, वह मैं दुःखी हूँ,पर होते तब ना ।

(3)-और जब भीम ने द्रौपदी को,कीचक के किये का फल देने की प्रतिज्ञा कर ली और कीचक को मार-मारकर माँस का लोथड़ा बना दिया तब अन्तिम श्वास लेते कीचक को उसने कहा था, "जो सैरन्ध्री के लिए कण्टक था,जिसने मेरे भाई की पत्नी का अपहरण करने की चेष्टा की थी, उस दुष्ट कीचक को मारकर आज मैं अनृण हो जाऊंगा और मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी।"

अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुर्भार्यापहारिणम् ।
शांति लब्धास्मि परमां हत्वा सैरन्ध्रीकण्टकम् ।।-(विराट २२-७९)

इस पर भी कोई भीम को द्रौपदी का पति कहता हो तो क्या करें? मारने वाले की लाठी तो पकड़ी जा सकती है, बोलने वाले की जीभ को कोई कैसे पकड़ सकता है?

(4)-द्रौपदी को दांव पर लगाकर हार जाने पर जब दुर्योधन ने उसे सभा में लाने को दूत भेजा तो द्रौपदी ने आने से इंकार कर दिया। उसने कहा जब राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं अपने को दांव पर लगाकर हार चुका था तो वह हारा हुआ मुझे कैसे दांव पर लगा सकता है? महात्मा विदुर ने भी यह सवाल भरी सभा में उठाया। #द्रौपदी ने भी सभा में ललकार कर यही प्रश्न पूछा था -क्या राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारकर मुझे दांव पर लगा सकता था? सभा में सन्नाटा छा गया।* किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तब केवल भीष्म ने उत्तर देने या लीपा-पोती करने का प्रयत्न किया था और कहा था, *"जो मालिक नहीं वह पराया धन दांव पर नहीं लगा सकता परन्तु स्त्री को सदा अपने स्वामी के ही अधीन देखा जा सकता है।"-

अस्वाभ्यशक्तः पणितुं परस्व ।स्त्रियाश्च भर्तुरवशतां समीक्ष्य ।-(२०७-४३)

"ठीक है युधिष्ठिर पहले हारा है पर है तो द्रौपदी का पति और पति सदा पति रहता है, पत्नी का स्वामी रहता है।"

यानि द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हारे जाने का दबी जुबान में भीष्म समर्थन कर रहे हैं। यदि द्रौपदी पाँच की पत्नी होती तो वह ,बजाय चुप हो जाने के पूछती,जब मैं पाँच की पत्नी थी तो किसी एक को मुझे हारने का क्या अधिकार था? द्रौपदी न पूछती तो विदुर प्रश्न उठाते कि "पाँच की पत्नि को एक पति दाँव पर कैसे लगा सकता है? यह न्यायविरुद्ध है।"

_स्पष्ट है द्रौपदी ने या विदुर ने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। यदि द्रौपदी पाँचों की पत्नी होती तो यह प्रश्न निश्चय ही उठाती।_

इसीलिए भीष्म ने कहा कि द्रौपदी को युधिष्ठिर ने हारा है। युधिष्ठिर इसका पति है। चाहे पहले स्वयं अपने को ही हारा हो, पर है तो इसका स्वामी ही। और नियम बता दिया - जो जिसका स्वामी है वही उसे किसी को दे सकता है,जिसका स्वामी नहीं उसे नहीं दे सकता।

(5)- द्रौपदी कहती है- "कौरवो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नि हूं।तथा उनके ही समान वर्ण वाली हू।आप बतावें मैं दासी हूँ या अदासी?आप जैसा कहेंगे,मैं वैसा करुंगी।"-

तमिमांधर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णनाम् ।
ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः ।।-(६९-११-९०७)

द्रौपदी अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है।

(6)- पाण्डव वनवास में थे दुर्योधन की बहन का पति सिंधुराज जयद्रथ उस वन में आ गया। उसने द्रौपदी को देखकर पूछा -तुम कुशल तो हो?द्रौपदी बोली सकुशल हूं।मेरे पति कुरु कुल-रत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर भी सकुशल हैं।मैं और उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगों के विषय में आप पूछना चाह रहे हैं, वे सब भी कुशल से हैं। राजकुमार ! यह पग धोने का जल है। इसे ग्रहण करो।यह आसन है, यहाँ विराजिए।-

कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः
अहं च भ्राताश्चास्य यांश्चा न्यान् परिपृच्छसि ।-(१२-२६७-१६९४)

#द्रौपदी भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव को अपना पति नहीं बताती,उन्हें पति का भाई बताती है।

और आगे चलकर तो यह एकदम स्पष्ट ही कर देती है। जब युधिष्ठिर की तरफ इशारा करके वह जयद्रथ को बताती है---

एतं कुरुश्रेष्ठतमम् वदन्ति युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ।-(२७०-७-१७०१)

"कुरू कुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही ,धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं।"

क्या अब भी सन्देह की गुंजाइश है कि द्रौपदी का पति कौन था?

(7)- कृष्ण संधि कराने गए थे। दुर्योधन को धिक्कारते हुए कहने लगे"-- दुर्योधन! तेरे सिवाय और ऐसा अधम कौन है जो बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करे जैसा तूने किया। -

कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति ।
आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदीम् त्वया ।।-(२८-८-२३८२)

कृष्ण भी द्रौपदी को दुर्योधन के बड़े भाई की पत्नी मानते हैं।
 द्रौपदी का केवल एक ही पति था - युधिस्ठिर। उनका नाम पांचाली इसलिए था क्योकि वो पांचाल नरेश की पुत्री थी , न की पाँच भाइयों की पत्नी। इसके अन्य प्रमाण भी महाभारत में हैं।

अब सत्य को ग्रहण करें और द्रौपदी के पवित्र चरित्र का सम्मान करें।

कम से कम ईश्वर ने जो बुद्धि ,विवेक दिया है उसका प्रयोग भी कर लीजिए। काहे डब्बे में बंद करके धरती में गाड़ दिए है।
वेदों की ओर चले , मनुष्य बने , तार्किक बने।
बाकि आप खुद ,,,,,,,, समझ लीजिए,,,,,,,

तर्कशील बने।
विज्ञानवादी बने।
भारत को सामर्थ्यशाली बनाएँ !

पर्दाफाश होगा।
आज नही तो कल निश्चित होगा।।

देश के लोगों का मान सम्मान स्वाभिमान छीनने वाले दुश्मनों का सत्यानाश होगा।
जब शेर जागेगा तो लुटेरा गीदड़ दम दबाकर भागेगा।।

           अंधविश्वास भगाओ
          आत्मविश्वास जगाओ

शिक्षित बनो और शिक्षित करो।

सबेरा और उजाला तब नहीं होता जब सूर्योदय होता है, उसके लिए आंखें भी खोलनी पडती है।

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

शोधसंक्षिप्तिका संस्कृत

श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता ।

यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ।।

(मालविकाग्निमित्रम् 1/16)

शोधस्य पृष्ठभूमिः (Preface of Research)

    वेदाः सन्त्यानुसन्धातृभिः महर्षिभिरनुभूतस्य परमतत्त्वस्य बोधयितारो भूत्वा भुवि विभान्ति । यत्र प्रत्यक्षस्य न च अनुमानस्य प्रवेशस्तत्रापि ते प्रविशन्ति । एषामेव भारतीयसभ्यता-संस्कृतेश्चाधारमूलानां शिक्षा वर्तते षडङ्गेषु आद्यमङ्गमत्र । स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते च सा  शिक्षेति । वेदानां वैदिकसाहित्यस्य वा अध्ययनाध्यापनविषयकविधीनां निर्देशः शिक्षाशास्त्रे कृतः । शिक्षाशास्त्रेतिहासः पुरातनतरः वर्तते । संस्कृतवाङ्मये विशेषतः व्याकरणशिक्षणं प्रमुखं स्थानं भजते । प्रत्येकं भाषा तत्तद्वयाकरणनियमानुसारं स्वीयपरिधिनिर्माणपुरस्सरं विशिष्टां रूपरचनां सृजतीति स्पष्टमेव ।

    संस्कृतभाषा भाषास्वादिभाषा । यास्क-पाणिनि-पतञ्जलिप्रभृतीनां विद्वद्धौरेयाणां ग्रन्थाः संस्कृतभाषायाः लोकव्यवहृतेश्च सन्ति समुज्ज्वलानि ज्वलन्ति प्रमाणानि । भारतीयभाषासु सुरमणीया, सुललिता, मधुरा, सर्वप्राचीना चेयं संस्कृतभाषा कठिनेति मन्वानाः बहवः एतदध्ययनात् पराङ्मुखाः तिष्ठन्ति । तत्रैव एतदपि आश्चर्यभूतं दरीदृश्यते यत् सहस्रशः संस्कृतविद्वान्सः, सेवारताध्यापकाः, अध्येतारः, समर्पितजीवनाः संस्कृतप्रचारकाः छात्राः, बान्धवाः च अस्याः अभ्युत्थानाय अहर्निशं यतमानाः सन्ति । एतेषां प्रोत्साहनाय संस्कृतायोगः ऊर्जाबलं यथासमयं प्रयच्छत्येव । संस्कृतभाषाशिक्षणे विविधेषु आधुनिकेषु शिक्षाशास्त्रग्रन्थेषु सत्सु प्राविधिक-शास्त्रप्रतिपादिते अभिक्रमिताधिगमप्रविधिप्रतिपाद्यः रेखीयाभिक्रमिताधिगमः विषयेऽस्मिन् किञ्चिदनुसन्धाय तस्य व्याकरणांशाधिगमे कीदृशो प्रभावः भवतीति जिज्ञासया कारकाधिगमे रेखीयाभिक्रमस्य प्रभावेति समस्यामाहृत्य प्रयोगात्मकमनुसन्धानं विधास्यते ।

शोधक्षेत्रम् (Research Area)

अस्त्युत्तरां दिशमलङ्कुरुते प्रकामं हैमाचलः सकलपर्वतराजिराजः ।

स्थूलाङ्गतुङ्गशिखरावलिभिवृतो यः स्रग्भिर्यथा सुरसरितसुमजाभिरिन्द्रः ।।

महाहिमवन्तस्य उपत्यकासु वासकारणादस्य प्रदेशस्य नाम हिमाचलमिति अभूत् । हिमाचलप्रदेशस्य शाब्दिकार्थः भवति हिमावृतपर्वताभ्यन्तर्स्थितप्रदेशः इति प्रदेशोऽयं पर्वतराज्ञी, देवभूमिः, बुद्धभूमिश्चापि नामाख्याता वर्तते । 55673 वर्गकिलोमीटर्-परिमितो विस्तीर्णोऽयं देवभूमिति कथ्यमानः प्रदेशः 26 जनवरी,1971 तमे वर्षे पूर्णराजस्वमाप्नोत् । प्रदेशेऽस्मिन् द्वादशजनपदाः वर्तन्ते । एषु द्वादशसु जनपदेषु सर्वाधिके (297 संख्यात्मके) उच्चमाध्यमिकविद्यालययुते  अनुसन्धात्रा चित्ते काङ्गड़ाजनपदे  एव शोधाध्ययनं समपत्स्यते । 


शिक्षा (Education)

    संस्कृतभाषायां शिक्षा  इति पदस्य व्युत्पत्तिः शिक्ष् विद्योपादाने इति धातोः गुरोश्चहलः इति पाणिनिसूत्रेण अ प्रत्यये सति निष्पन्ना भवति । अस्यार्थो भवति विद्याग्रहणम्  इति (ऋग्वेदः)। वेदेषु सर्वत्र स्वरप्राधान्यं भवत्येव, स्वरभेदनार्थभेदसम्भवात् । इदं स्वरज्ञानं शिक्षाधीनं भवति । अतः शिक्षाशास्त्रस्य वेदाङ्गता सुतराम् उपपद्यते ।

माध्यमिकस्तरःMiddle Level माध्यमिक-शिक्षाऽऽयोगः1952-53( मुदालियरायोगः)

    अस्याध्ययनस्तरस्य संस्तुतिः भारतसर्वकारेण माध्यमिक-शिक्षाऽऽयोगाय प्रदत्ता अस्ति । अनेन आयोगेन अत्र माध्यमिकस्तरे शिक्षोद्देश्यानि परिष्कृतानि सन्ति । सामान्यतः आयोगस्यास्य निश्चितोऽयं स्तरः यत् षष्ठीकक्ष्यारभ्य दशमीकक्ष्यापर्यन्तं माध्यमिकस्तरः वर्तते । अस्य स्तरानुगुणं प्राचल्यमानस्य पाठ्यक्रमस्य एव अध्यापनं विद्यालयेषु अध्यापकः सम्पादयति ।

कारकम् ( Karakam)

    क्रियान्वयि कारकम् इति पाणिनिसम्मत्तम् । अर्थात् क्रियायाः अन्वयः क्रियान्वयः । अन्वयः नाम सम्बन्धः । क्रियान्वयः अस्तीति क्रियान्वयि । यः क्रियया अन्वेति (सम्बन्धं प्राप्नोति) सः कारकमित्युच्यते इति फलितार्थः । व्याकरणशास्त्रे कारकाणि षडविधानि निगदितानि -

कर्ता कर्म च करणं सम्प्रदानं तथैव च ।

आपादानाधिकरणम् इत्याहुः कारकाणि षट् ।। 

रेखीयाभिक्रमः(Linear Programme)

    रेखीयाभिक्रमः अर्थात् शिक्षणक्रमबद्धता । शृङ्खलाभिक्रम-बाह्यानुदेशनप्रभृतनामभिः बहुश्रुतः अयं सक्रिय-शिक्षणानुबद्धताक्रमः अभिक्रमिताधिगमहेतुः अनुदेशनप्रदायकः प्रकारविशेषो वर्तते । अभिक्रमितानुदेशनप्रक्रियायाम् अस्य एव प्रकारविशेषस्य शिक्षणे आद्यप्रयोगः शैक्षिकप्रविधौ उपादेयः प्रोक्तः । मनोवैज्ञानिकस्य श्रीमतःबी.एफ्.स्किनरमहोदयस्य नामोल्लेखः महत्तां भजते यः 1943 तमे वर्षे कपोतानामुपरि प्रयोगं विधाय अधिगमाय  सक्रियानुबन्धानुक्रियेति सिद्धान्तस्य प्रतिपादनमकरोत् । रेखीयाभिक्रमे विषयस्य लघुषु-लघुषु पदेषु विभाजनं क्रियते । एतेषु पदेषु त्रीणि तत्त्वानि निहितानि भवन्ति । उद्दीपन-अनुक्रिया-पुनर्बलनादयः इत्येते त्रयः बिन्दवः शिक्षणस्य सफलतां परिपोषयन्ति । रेखीयाभिक्रमे प्रस्तावनापद-शिक्षणपद-अभ्यासपद-परीक्षणपदञ्चेत्येते पाठनस्य पदविभागाः सन्ति । तन्त्रांशोपागमे यदा शिक्षायां बलं दीयमानमासीत् तदा स्वाध्यायसामग्रीनिर्माणे प्रयासः क्रियमाणः आसीत्  । तस्मिन् स्किन्नरयोगदानपरिणामरूपः रेखीयाभिक्रमः स्वाध्यायसामग्रीनिर्माणप्रक्रमः सृष्टो वर्तते । प्रवर्तमानानेहसि उदाहरणत्वेन दूरस्थशिक्षणपाठ्यक्रमः एतदेव सिद्धान्ताधारितो वर्तते । मनोवैज्ञानिकसिद्धान्ताधारितेऽस्मिनभिक्रमे छात्राणां व्यक्तिगतविभिन्नताधारितं शिक्षणं, तार्किकक्रमेण, क्लिष्टविषयाणां बोधगम्यतासम्पादनं विशेषतया प्रवर्तते । 

समस्याकथनम् (Statement of the Problem)

    हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्च-माध्यमिकस्तरच्छात्राणां कारकाणामधिगमे रेखीयाभिक्रमस्य प्रभावः ।

अध्ययनस्य आवश्यकता महत्त्वञ्च (Need and Importance of Study )

    शिक्षाजगति संस्कृतवाङ्मये प्रमुखनामाख्यातस्य व्याकरणस्याध्ययनं विधिनानेन कर्तुं शक्यं न वा इत्यनया जिज्ञासया अनुसन्धाने प्रविधिरयं व्याकरणशिक्षणाय चितः। व्याकरणशास्त्रे विषयविशालतां परिदृश्य कारकं नाम्ना छात्रोपकारकः प्रचलितः विषयः अनुसन्धानाय चितः । उच्च-माध्यमिकस्तरे विषयस्यास्य अधिगमः छात्राणां न संभवति । अतः एतस्मै स्तराय कारकविषयः सुलभतरः भवेदिति मत्वा अयं प्रविधिः अनुसन्धानाय स्वीकारि ।

    अपि च यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणमिति भाषा शुद्धतायाः स्पष्टतायाः वा ज्ञानसम्पादनार्थम् अनुसन्धानविषयः परिकल्पितो वर्तते । यतः क्लिष्टमिदं व्याकरणशास्त्रं तस्मात् सुलभोपायाभावे संस्कृतव्याकरणांशाः सुकरतया अवगन्तुं शक्येति प्रतिपादयितुम् अध्ययनस्य आवश्यकता वर्तते नितराम् ।



अध्ययनस्योद्देश्यानि (Aims of Study) 

  1.  हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे रेखीयाभिक्रमस्य प्रभावपरिशीलनम्  ।

  2. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे रेखीयाभिक्रम-पाठ्यक्रमः कारकाधिगमं प्रभावयति न वा इति परीक्षणम् ।

  3. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे स्वाध्यायेन छात्रेषु जायमानायाः अवबोधशक्तेः अध्ययनम् ।

  4. उच्चमाध्यमिकस्तरीयच्छात्रेषु कारकाधिगमार्थं रेखीयाभिक्रमाणां निर्माणम् ।

  5. उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाधिगमार्थं निर्मितानां रेखीयाभिक्रमाणां प्रामाणिकतासम्पादनम् । 

  6. उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाधिगमे लिङ्गमिति चरस्य प्रभावपरिशीलनम् ।

  7. उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाणामधिगमे शालाप्रकारः इति चरस्य प्रभावपरिशीलनम् ।

  8. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाधिगमे प्रान्तीयता (ग्रामीणनागर) इति चरस्य प्रभावपरिशीलनम् ।

अध्ययनस्य प्राक्कल्पना ( Hypothesis of Study)

  1. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाणामधिगमे रेखीयाभिक्रमिताधिगमसामग्र्याः प्रभावः न स्यात् ।

  2. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाणामधिगमे लिङ्गमितिचरस्य प्रभावः न स्यात् । 

  3. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ- उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाणामधिगमे शालाप्रकारः इति चरस्य प्रभावः न स्यात् । 

  4. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ- उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाधिगमे प्रान्तीयता (ग्रामीणनगर)   इति चरस्य प्रभावः न स्यात् ।

  5. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ- उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाधिगमे स्मृति-अवबोध-चिन्तनस्तरेषु पारम्परिकस्वाध्याय-अभिक्रमिताधिगमसामग्र्योः प्रभावे भेदः न स्यात् । 

अध्ययनस्य सीमाङ्कनम् (Limitations of Study)

    करिष्यमाणेऽस्मिन् अनुसन्धानकार्ये क्षेत्रविषयबहुलतां च मनसि निधाय विस्ताराधिक्यम् अनाचरय्य विषयस्य अध्ययनाय क्षेत्रसीमा अर्थात् परिमितिः काचिद् निर्धारिता वर्तते -

1. प्रस्तुताध्ययने कारकाणामधिगमाय चित्तः रेखीयाभिक्रमप्रविधिः उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु एव प्रयुक्तो भविष्यति ।

2.उच्चमाध्यमिकस्तरे नवमी-दशमीकक्षयोः अधीयानाच्छात्राः एव अध्ययनाय ग्रहिष्यन्ते ।

3.अध्ययनाय विविधपाठ्यक्रमाधारिताः उच्चमाध्यमिकपाठशालाः एव स्वीकृताः भविष्यन्ति ।

4.सर्वकारेणानुदानिता तथा च अनुदानेतरोच्च-माध्यमशालाश्च प्रयोगार्थं स्वीकृताः भविष्यन्ति ।

शोधविधिः(Method of Research)      प्रस्तुतशोधकर्मणि तस्य प्रकृतिम् आवश्यकतां क्षेत्रं  च मनसि निधाय अस्मिन् विषये प्रयोगात्मकविधेः एव प्रयोगः भविष्यति ।

अध्ययनस्य न्यादर्शः (Sample of Study)

    समयस्य धनस्य मानवशक्तेः साधनानाञ्च सदुपयोगितायाः प्रवर्तकः परिगण्यते न्यादर्शः । वैज्ञानिकाध्ययने न्यादर्शेण विना समस्यानां समाधानं भवितुं न अर्हति । अतः न्यादर्शानाम् अनुसन्धानकर्मणि विशिष्य शैक्षिकानुसन्धाने अन्यतमा भूमिका वर्तते ।

    राज्यशः भारतवर्षे शिक्षाजगति माध्यमिकशिक्षायां विविधता परिदृश्यते । अनुसन्धात्रा शोधाध्ययनाय चित्ते हिमाचलप्रदेशे माध्यमिकस्तरभेदानां विवरणमिदमित्थम्प्रकारेण वर्तते-

       

        षष्ठीतः अष्टमीकक्ष्यापर्यन्तम् - माध्यमिकस्तरः 

        षष्ठीतः दशमीकक्ष्यापर्यन्तम् - उच्चमाध्यमिकस्तरः

        षष्ठीतः द्वादशीकक्ष्यापर्यन्तम् - वरिष्ठमाध्यमिकस्तरः

हिमाचलप्रदेशे काङ्गडाजनपदे षष्ठीतः दशमीकक्ष्यापर्यन्तम् उच्चमाध्यमिकविद्यालयानां संख्यात्मकं विवरणम् -

        आहत्य (वर्ष-2012) उच्चमाध्यमिकविद्यालयाः  297 

        हिमाचलसर्वकारीया उ.मा.वि.(H.B.S.E) 65

        केन्द्रिय-स्कूलशिक्षाबोर्ड उ.मा.वि.(C.B.S.E) 41

        भारतीय-विद्यालय-शिक्षापरिषद् उ.मा.वि.(I.C.S.E) 3

        निजी-उ.मा.वि.(PRIVATE) 188 

    शोधकर्त्रा शोधाध्ययनाय उच्चमाध्यमिकस्तरे द्वे (नवमी-दशमी) कक्ष्ये स्वीकृते स्तः । अत्र दशमीकक्ष्या बोर्डकक्ष्या वर्तते । तत्र अनुसन्धानाध्ययनाय पूर्णतः अवकाशः न प्राप्येत । अतः शोधाध्ययनाय चिकार्षीत् । शोधार्थी     परीक्षणाय उच्चमाध्यमिकविद्यालयस्य द्विशतच्छात्रान् स्वीकरिष्यति । प्रायोगिकविधिना च छात्राणां परीक्षणं करिष्यति ।

न्यादर्शविवरणम् -

    उ. मा. वि. नाम                                                            छात्रसङ्ख्या

                                    बालकाः            बालिकाः

हिमाचलसर्वकारीया उ.मा.वि.(H.B.S.E)                 25            25

केन्द्रिय-स्कूलशिक्षाबोर्ड उ.मा.वि.(C.B.S.E)                 25            25

भारतीय-विद्यालय-शिक्षापरिषद् उ.मा.वि.(I.C.S.E)              25            25

निजी उ.मा.वि.(PRIVATE)                          25            25

एवं स्वीकृतानां न्यादर्शानामाधारेणैव शोधाध्ययनं सम्पत्स्यते ।


प्रयक्तोपकरणानि  ( Tools to be used ) 

    - रेखीयाभिक्रमयुतनिर्मिता कारकविषयिणी पाठ्यसामग्री ।

    - पूर्वोत्तरपरीक्षापत्रे ।

प्रदत्तानां संकलनम् (Data Collection)

    शोधकर्त्रा प्रश्नावल्या आधारेण प्रदत्तानामेकत्रीकरणम् एवञ्च संकलितरूपस्य विश्लेषणं करिष्यते ।

प्रदत्तानां विश्लेषणम् एवञ्च व्याख्या (Analysis of Data)

    प्रस्तुतेऽस्मिन् शोधकार्ये शोधकर्ता प्रदत्तानां सांख्यिकीयविधिभिः विश्लेषणं व्याख्यां च करिष्यति।

प्रयुक्तसांख्यिकीयविधयः(Use of Statistical Method)

    मध्यमानम्            (Mean)

    प्रामाणिकं विचलनम्        (Standard Deviation)

    टी.मूल्यपरीक्षणम्        (T-Value)

    स्तम्भाकृतयः            (Histograms)


निष्कर्षः(Finding)प्रदत्तानां विश्लेषणस्याधारेण निर्दिष्टानां परिकल्पनानां परीक्षणं प्रवर्तयिष्यते । परीक्षणस्याधारेण परिपृष्ट्यादिविषयाणां परिज्ञानं भविष्यति । अस्याधारेण च शोधकर्त्रा शोधस्य निष्कर्षः निष्कासयिष्यते  ।





शोधस्य प्रारूपम् (Design of Research)

प्रथमोऽध्यायः

        1.1 प्रस्तावना

        1.2 समस्याकथनम्

        1.3 शोधस्यावश्यकता

        1.4 शोधोद्देश्यानि

        1.5 शोधप्राक्कल्पना

        1.6 सीमाङ्कनम्

        1.7 पारिभाषिकशब्दावली

द्वितीयोऽध्यायः

        2.सम्बन्धितसाहित्यस्याध्ययनम् ।

तृतीयोऽध्यायः

        3.1 शोधप्रविधिः

        3.2 शोधन्यादर्शः

        3.3 शोधोपकरणानि

        3.4 प्रदत्तानां संकलनम् 

चतुर्थोऽध्यायः

        4.प्रदत्तानां सांख्यिकीयविधिभिः विश्लेषणं व्याख्या च ।

पञ्चमोऽध्यायः

        5.1 शोधसारांशः

        5.2 शोधनिष्कर्षः

        5.3 शोधपरामर्शः 

        5.4 भाव्यानुसन्धानम्

सन्दर्भग्रन्थसूची

परिशिष्टम्

प्रश्नावली

प्राचीन वेदानुसारेण पर्यावरणस्य सम्प्रत्यानाम् अध्ययनम्।।


।।प्राचीन वेदानुसारेण पर्यावरणस्य  सम्प्रत्यानाम् अध्ययनम्।।

                                                 कपिलदेवः।।

   श्री सरस्वती वाग् अधिष्ठात्री नमः।।

     श्री सीतारामचरकमलेभ्यः नमः।।

  • शिक्षायाः स्वरूपम् –

    समग्रे प्राणिसंसारे मानवमहत्ता शिक्षयैव मन्यते। शिक्षादीप्तिदीपितः एव पुरुषः क्रेमेकोन्नतिमातमोतु। अगकनीयां योनिपरम्परामनुसेत्य स्वकर्मफलानुसारमेव जीवो मानवयोनिं प्राप्नोति। सहजतया मानवजन्मः न लभ्यते, मानवजन्म तु प्राक्कालिकजन्मजन्मारार्जितानां पुण्यनां फलमेवास्ति। यत् पुण्यं मानवजीवन – प्रदमुन्नतिकरञ्च कथ्यते तत्पुण्यं पुरूषे  शिक्षयैव विद्यते। सम्पाद्यते च मानवानां निखिलमप्युन्नतिमयं जीवनं शिक्षाश्रियमेव वेद्यम्। वेदविद्यावता आद्यां स्मृतिपरम्परामुदन्मायता मनुना भुतेषु प्राणिनां प्राणिषु बुद्धिजीविनां, कृतबुद्धिषु कतृणां, कर्तृषु, ब्रह्मविदो श्रेष्ठता समाख्याता। तथाहि –

भुतानां प्राणिनः श्रेष्ठा प्राणिनां बुद्धिजीविनः। 

बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्माणाः स्मृताः।

ब्राह्माकेषु च विद्वांसो विदवत्सु कृतबुद्धयः।

कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिन।

वेद शास्त्र – विज्ञानादीनां साध्वनुशीलने तत्त्वार्थज्ञानं च विद्येति। स्वीक्रियते -    “अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विद्यत्राऽमृतमश्नुते” इति खलु वेदघोषः।

    सा विद्या एव प्रकृष्टा या विद्या मुक्तिं प्रददाति। उपनिषदाम् अनुसारेण द्वे विधाः परा अपरा च। यथा विद्यया लौकिकं ज्ञानं ज्ञायते, सा अपरा विद्या। यथा च अक्षर – ब्रह्माविषयकं ज्ञानं ज्ञायते, सा परा विद्या। लौकेऽस्मिन् विद्या एव तज्ज्योतिः यद् ज्ञायते, सा परा विद्या। लोकेऽस्मिन् विद्या एव तज्ज्योतिः यद् मानवे ज्ञानज्योतिं ज्वालयति, अविद्यान्धतमसं व्यपोहति, दुर्गकरणं वारयति, सद्गुकततिं संचारचति, कार्ति प्रथयति, गौरवं विकासयति, यशो वितनोति, भूभूत्सु च आदरम् आवहति। एषा मातृवत् संरक्षिका, पितृवत्  सत्पथप्रदर्शिका, कान्तावत् सुखदामनोञ्जिका च, कार्तिप्रदा, वैभवदायिनी। दुगुणगणनाशेन मनसः पावयित्री च।

मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते कान्तेवचाभिरमयत्यपनीय खेदम्।

लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कार्तिः किं किं न साध्यति कल्पलतेव विद्या।

                                    (निबन्धशतकम्)

  • शिक्षाया अर्थः –

    शिक्षायाः शाब्दिकार्थे शब्दस्य कोऽर्थः अभिप्रेत इत्यास्मिन् विषये चर्चा विधीयते। “शिक्ष – विद्योपादाने इत्यस्माद् भौवादिकधातोः”, “गुरोश्च हलः” इति राणिनीय सूत्रेण अ- प्रत्यये सति “अजाद्यतष्टाप” इति टापि शिक्षा इति शब्दाः निष्पद्यते। शिक्षाशब्देन प्रमुखतया विद्याग्रहणमेव ध्वन्यते। अपि च  ‘शक्लृ - शक्तौ’ इत्यस्मात् सौवादिकधातोः सति प्रत्यये सति स्त्रियां पूर्ववदेव अ – प्रत्यये टापि च शिक्षा – शब्दो निष्पद्यते। परमनेन शब्देन अर्थाद्वयं निस्सरति। ‘शिक्षेर्जिज्ञासायाम् इति वार्तिकप्रमाणेन यदा अयं जिज्ञासावाची भवति। तदा विद्यासु शिक्षते इतिवत्। शब्दोऽयं जिज्ञायार्थकः भवति। यदा शक्तुमिच्छति इत्यर्थे शिक्षाशब्दः तदा अयं ग्रहीतुः सामर्थ्यप्रदायिवस्तु भवति। प्रकारान्तरेण त्रिष्वप्यर्थेषु विद्योपादाने जिज्ञासायां सामर्थ्यलाभे चायं शिक्षाशब्दः महान्तमर्थं प्रकृटयति। यतो हि विद्याग्रहणे जिज्ञासैव प्रवर्त्तयति विद्यार्थिनम्। ततः जिज्ञासया विद्यायाः ग्रहणे सति सामर्थ्यवर्धनं भवत्यैव।

 पर्यावरणसम्प्रत्ययः -

    परि+आवरणम् इत्याभ्यां प र्यावरणम् इति पदं निष्पन्नम्। परि इत्यस्य अर्थः भवति चतस्रः दिशः इति। आवरणम् इत्ययं शब्दः ‘अ’ इति उपसर्गपूर्वकम् वृञ् – वरणे इत्यस्मात् धातो ल्युट प्रत्ययान्तः वर्तते। अस्यार्थः आच्छादितम् इति। पर्यावरणम् इति पदस्य तात्पर्यार्थः भवति चतसृभिः दिग्भिः आच्छादितम् इति। परितः आवरणमेव पर्यावरणम्। अस्मान् परितः यानि तत्वानि विलसन्ति तानि सर्वाणि पर्यावरणम् इति नाम्ना व्यपदिश्यन्ते। यथा समीरः, आपः, अग्निः, वनस्पतिः, वृक्षः, खगः, जन्तुः, कीटः, मनुष्यः इत्यादयः। एतेषां समेषां तत्वानां समाहारः पर्यावरणम् भवति। 

जड़चेतनात्मके अस्मिन् जगति प्राणीमात्रस्य जीवनाय कतिचित् तत्त्वानि महदावश्यकानि सन्ति। यथोदर पोषणाय आहारः पिपासा शान्त्ये जलं निःश्वास - प्रश्वासाय वायुश्च एतानि जीवनावश्यकतायै अत्यन्तावश्यकानि तत्त्वानि। कतिपयः – कारणेभ्यः आधुनिकसंस्कृतिमये नाना जीवव्याप्ते पृथ्वीतले दोषपूर्णानि भवन्ति दृश्यन्ते प्रतीयन्ते च। हेतोरस्मात् पृथिव्यां निवसद्भिः प्राणिभिः सहैव वृक्षवनस्पतीनामपि जीवितत्वं काठिन्यं भजति।    यथा खलु वयं जानीमः अनुभवामश्च जगदिदं स्थावरजंगमात्मकं तत् द्वन्दैः निर्मितं स्थितीकृतं चास्ति। एतेषु द्वन्देषु स्थिरीभूतेषु अस्याः सृष्टेः स्थिरता सभ्यात्यते नान्यथा। वस्तुतस्तु एषा द्वन्दात्मकता – जगत – सर्जनायाः महानतमनियमेषु अन्यतमा विद्यते।                        यदा चास्माभिः पर्यावरणं प्रति दृष्टिः निक्षिप्यते तदा अवबुध्यते तत् पर्यावरणदृशो प्राणिधारिभिः सह तदितरेषां वन - वृक्षसागरसरितां गहनम सामञ्जस्यं वर्तते। सम्प्रति विज्ञानेन सूक्ष्मस्थूलाध्ययनाभ्याम् अन्वेषणेन च परीक्ष्य तथ्यमिदं स्पष्टीकृतमस्ति यत् वृक्षवनस्पत्यादिभिः श्वसनप्रक्रियायां विसर्जितः ओषजन (आक्सीजन – अभिधानो वायु - विशेषः) श्वसद्भिः समस्तप्राणिभिः श्वसनक्रियायै ग्राह्यो अस्ति, यतः वायु विशेषोऽयं रक्तशोधेन परमाववश्यकः।    वेदेषु बहवः मन्त्राः तादृशाः सन्ति ये खलु पूर्णतः पर्यावरणेन सम्बद्धा सन्ति। यथा एकस्मिन् मन्त्रे वैदिकः ऋषिः वनस्पतिं प्रार्थयति -                                     “ओषधिः प्रतिमोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः।                            अश्वाऽइव सजित्वरी व्वीरुधः पारयिष्णवः।।” (ऋग्वेद -4 )       

अन्यत्र च ऋषिः ओषधिं प्रार्थयति यत् -                                                “त्वां गन्धर्व्वाऽअखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।                          त्वामोषधे सोमो राजाव्विद्वान्यक्ष्मादमुच्यत्।।”                अर्थात् हे ओषधेः त्वामिन्द्रः बृहस्पत्यादयः महान्तो देवा अद्नन् त्वत्प्रभावात् सोमाभिधः औषधीशः यक्ष्माद्यात् रोगात् विमुक्तः सञ्जातः इति।

पर्यावरणचक्रम्













  • पर्यावरण किम् –                                                 

        पृथिव्यां यस्मिन्भागे जीवधारिणी निवसन्ति तज्जीवमण्डतमित्युच्यते। जीवमण्डलस्य मापं प्रायः स्थिरमस्ति। श्रेत्रमिदमाधुनिक – वैज्ञानिक-दृष्ट्या पृथिवीतः प्रायः सप्तदश – क्रोशं (किलोमिटर) यावद् ऊर्ध्वं   विस्तीर्णमस्ति। जीवमण्डले पृथिवी – वायु – जल – वृक्ष- वनस्पतयः सर्वे च जीवाः वसन्ति। प्राणिमण्डले पृथिवीवायुजलेन समुद्रोऽस्ति च एतानि त्रीण्यपि तत्त्वानि जीवनायावश्यकानि सन्ति।                     

           वेदा अस्माकमास्थायाः प्रतीकाः सन्ति। संस्कृतसाहित्यस्योद्गमस्थलाश्च संस्कृतेः सभ्यतायाः ज्ञानविज्ञानस्योन्नायकाः विधायकाश्च वेदाः। वेदेषु पर्यावरणमेव मानवस्य समग्रोन्नत्याः केन्द्रबिन्दुः वैदिकसाहित्यमस्ति। यद्यपि अल्पज्ञाः – मन्दमतयः वेदानां वैदिकप्रकृतिम् अनुसृत्य तस्य अर्थनिरूपणार्थे प्रयत्नं कृतवन्तः यस्मात् वेदानां वैज्ञानिकतायां प्रश्नचिह्नम् उद्भवति। ऋषिप्रणीतार्थानां प्रतिपादनं वैज्ञानिकतायाः पराकाष्ठा। लौकिक – वैदिकार्थानां भिन्नतां प्रदर्श्य वैदिकसाहित्यं यं मार्गमदर्शयत् तत् स्मरणीयमस्ति। पर्यावरणीया व्यवस्था वेदचतुष्टये येन केनाऽपि रूपेण लभ्यते किन्तु यजुर्वेदे मुख्यतः कर्मकाण्डस्य विषयत्वात् पूर्णं विवेचनं प्राप्यते। यजुर्वेदस्य प्रथमः मन्त्रः एव अस्य परिचायकः। अस्य वेदस्य एकस्मिन् मन्त्रे जगति व्याप्तकलानां वर्णनमस्ति यत्र पृथिव्याकाशवायु – अग्नीनां प्रतिपादनमस्ति। एतत् सर्व परमात्मना प्रजायाः प्रकाशाय विरचितम्। एताः षोडशकलाः सन्ति। यथा – 

  1. ईक्षणं (यथार्थविचारः)।

  2. प्राणः (वायु) यः विश्वं विभर्ति।

  3. श्रद्धा (सत्ये विश्वासः)।

  4. आकाशः।

  5. वायुः।

  6.  अग्निः।

  7. जलम्।

  8. पृथ्वी।

  9. इन्द्रियाणि।

  10. मनोज्ञानम्।

  11. अन्नम्।

  12. वीर्यम्।

  13. तपः (धर्मानुष्ठान् - सत्याचारौ)।

  14. मन्त्राः (वेदविधा)।

  15. कर्माणि (सर्वचेष्टाः)।

  16. नाम (अर्थात् दृश्यादृश्य पदार्थानां संज्ञा)।

           ऐतरेब्राह्माणे अपि उक्तमस्ति – ‘मनुष्यसमूहस्य सुखं यज्ञेन भवति।’ संस्कारितद्रव्याणां हवनेन विदुषे मानवाया आनन्दः प्राप्यते यतोहि परमार्थात् ईश्वरः परोपकारिणं नानाविधसुखैः तर्पयति।

       शतपथब्राह्मणेऽप्युक्तमस्ति यत् हवने यानि द्रव्यानि क्षिप्यन्ते तैः धूमः वाष्पश्च उत्पद्यते यतोहि अग्नेः स्वभावः पदार्थषु प्रविश्य छिन्नं भिन्नं करोति पश्यात् ते लघु भूत्वा वायुना सह आकाशे सह आकाशे व्याप्नुवन्ति।

‘अग्नेर्वैधूमो जायते धूमाद् भ्रमाद् वृष्टिरग्नेर्वा एता जायन्ते तस्मादांह तपोया इति।’

             ऋग्वेदे इन्द्रवृत्रासुरसूक्तं पर्यावरण – शिक्षायाः सुरक्षायाः च विषयः समेषाम् अवधानम् आकर्षयति। महर्षिः स्वकीये भाषार्थे वर्णनं सुन्दररूपेण कृतवान्। इन्द्र इति सूर्यस्य नाम, यः महान् पराक्रमी तेजोवान् चाऽस्ति। सः स्व – किरणैः वृत्रं अर्थात् मेघं हन्ति, स च मृतो भूत्वा पृथिव्यां पतति तां च व्याप्नोति तथा महद् इन्द्रियरूपेण परिपूर्णा भूत्वा समुद्रे मिलति, पुनः सूर्येण मेघरूपे व्याप्नोति। वृत्रस्य अस्मात् जलरूपशरीरात् बहव्यः नद्यः उत्पन्नाः भूत्वा अगाधे समुद्रे मिलन्ति, अवशिष्चं जलं कूपतडागादिजलाशयेषु विद्यते तत् मन्ये पृथिव्यां शेते इव।

  • ज्योतिषशास्त्रानुसारेण पर्यावरणस्य महत्त्वम् -            

   प्राचीनभारतीय – ज्यातिषशास्त्रे सूर्यचन्द्रादीनां ग्रहाणां पूज्यत्वेन स्वीकारः प्राचीनानां भारतीयानां पर्यावरणविषयकं चिन्तनं प्रस्तौति। शास्त्रेऽस्मिन्तेषां ग्रहाणां देवत्वमपि प्रतिष्ठापितम्। ज्योतिषशास्त्रे विशिष्ठ रूपेण ग्रहस्य विचारः क्रियते, एवं ग्रहा अनुसारेण पूर्णिमायां रात्रिसमये चन्द्रेणाकृष्णस्य  सन्तुलयन्ति जलमुत्थानं प्राप्नोति तथा च कृष्णपक्षे यथायथं चन्द्रकलानाम् ह्रास्यः भवति। शुक्लपक्षे च यथायथं बृद्धिर्भवति तथा तथा सम्पूर्णेऽपि पर्यावरणे कश्चन विशिष्टः प्रभावो दरीदृश्यते। शुद्धं वातावरणं स्वस्थं च जीवनं सर्वविधस्य विकासस्य साधकं भवतीति विचिन्त्यैव संस्कृतसुकविभिर्वातावरणशुद्धिर्बहुधा तेन हि तेषां मनीषिणां पर्यावरणं प्रति जागरूकत्वं स्पष्टं परिलक्ष्यते। मातृवत् पृथिव्यां श्रद्धाभावो वेदेषु बदुधा प्रकाशितः – 

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः”

एवम्विधेषु मन्त्रेषु भूमण्डलेन मानवजातेः स्नेहमयः सम्बन्धः प्रदर्शितः।

         इमे  कवयः पर्यावरणसंरक्षणविषयकज्ञानस्य धारां महर्षिभ्यः समासादितां स्वप्रज्ञाबलेन परिष्कृतवन्तः। अस्या परम्पराया निर्वाहः कालिदास – बाणभट्ट – भवभूति – प्रभृतिभिः परवर्तिभिः कवुभिरपि सम्यक्तया कृतः। इयमेव प्रकृतिः कालिदासस्य  काव्येषु संश्लिष्टसौन्दर्यमुपस्थापयति। कविकुलगुरुः कालिदासः प्रकृतेः सूक्ष्मातिसूक्ष्ममपि पक्षं स्वसाहित्ये प्रकाशयति स्म। ऋतुसंहारे मेघदूते तथा च अभिज्ञानशाकुन्तले प्रकृतिवर्णनं सौन्दर्यततत्त्वैः सञ्जातमिति कल्पितम्। 


  • सारांशः –

            सम्प्रति चतुर्ष्वपि वेदेषु महत्वपूर्ण वर्णनमस्ति। तस्य कारणमिदमस्ति यज्ञ एव स विधिर्येन प्राकृतिकं सन्तुलनं स्थापयितुं, वायुमण्डलशोधनम्, विविधरोगविनाशः, शारीरिकी, मानसिकी, चोन्नतिः रोगनिवारणेन दीर्घायुष्यप्राप्तिश्च सम्भवति। यक्षेन भूप्रदूषणं जलप्रदूषणं, वायुप्रदूषणं, ध्वनिप्रदूषणञ्च निरोधयितुं शक्यतें एतस्मादेव कारणाद्वेदेषु यज्ञ – यागादीनां वर्णनं महत्वपूर्णेन विधिना कृतमस्ति।

वस्तुतः प्रकृतावेका चक्रव्यवस्था प्रचलति, येन प्रत्येकं पदार्थः स्वकीयं मूलस्थनवाप्नोति। एमस्मिन्नेवाधारे ऋतुचक्रम्, वर्षचक्रम्, अहोरात्रचक्रम्, सौरचक्रम्, चान्द्रचक्रादिकञ्च विविध चक्रम् प्रवर्तितं भवति। इदं प्राकृतिकं चक्रमेव पारिभाषिकशब्दावल्ल्यां यज्ञ इत्युच्यते। सोऽयं विश्वस्मिन् प्रतिक्षणं प्रचलति। यज्ञोऽयमस्य सृष्टिचक्रस्य नाभिरुक्तः। तद्यथा यजुर्वेदः – “अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः” इति गोपथब्राह्मणे वर्णितमस्ति। यदृतुसन्धानवेव व्याधिर्जायते। तस्मद्व्याधिशान्तये यज्ञोऽपि ऋतुसंन्धानमेव क्रियते। यथा – “भैषज्ययज्ञा वा एते, ऋतुसंन्धिषु प्रयुज्यन्ते, ऋतुसंन्धिषु वै व्याधिर्जायते” इति। यज्ञेषु प्रयुक्तानि द्रव्याणि – यज्ञेषु समिधा, घृतम् हव्यसामग्रयः स्थालीपाकादयश्च प्रयुज्यन्ते। अत ऐतेषां पदार्थानामुपयोगेन प्रकृतेः संतुलनम्, पर्यावरणस्यशोधविविधाधिव्याधिविनाशः, सर्वविधशान्तिसम्भवति।

 मानवसभ्यतायाः संरक्षणाय विकासाय हि पर्यावरणशिक्षा अत्यन्तमावश्यकी अस्ति। यतोहि पर्यावरणविषयिणी जागरूकता यदि मानवस्य एव न स्यात् तर्हि यूनान- मिस्र – रोम – बेबीलोन – हडप्पादयः सभ्यता प्रत्येकं क्षेत्रविशेषस्य च संस्कृतिः धूलिधुसरिता भविष्यति अतः मानवरूपप्राणिनः तत्सभ्यतायाः तत्संस्कृते च पल्लवनं मानवस्य आद्यं कर्तव्यम्। पर्यावरणस्य अस्यामेव विस्तृतभावनायां भूमण्डलाश्रितानि सर्वाणि तत्त्वानि अन्तर्भवन्ति येन मानवजीवनं प्रभावितं भवति।

        यदि वयं पर्यावरणं प्रति उपेक्षां करिष्यामः तर्हि विश्वमानवः विनाशस्य शिखरे प्रत्यासन्नो भविष्यति। पर्यावरणशिक्षया मानवः प्रकृतिं प्रायोन्मुखं भवति। प्रकृत्याः अनावश्यकदोहनस्य प्रतिफलात् ज्ञास्यति। यच्च मानवसंस्कृत्यै अमङ्गलकारी अस्ति। पर्यावरणशिक्षया – एव पर्यावरणपरिवेशे औचित्यानुगुणम् आमूल –चूल – परिवर्तनं कृत्वा परमाणुयुद्धस्य विभीषिकया मुक्तः भविष्यति। इयं हि शिक्षा मानवं समुचितान् नैतिकाञ्च मूल्यान् प्रति सचेतनान् कृत्वा विश्वमानवसंस्कृतेः विकासाय योगदानं कर्तुं शक्नोति।              इत्थम् 

                                                                                       कपिलदेवः

                                                                                         विशिष्टाचार्यः












    उपयुक्तग्रन्थसूची

     Bibliography


  • द्विवेदी, कपिलदेव, (2010) संस्कृतनिवन्धशतकम्, वाराणसी, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी।

  • सक्सेना ए.बी, पर्यावरण  शिक्षा, देहली, आर्यबुक डिपो देहली।

  • शास्त्री, रामानारायण, (1968) संस्कृतवाङ्मये पर्यावरण विज्ञानम्, संस्कृतमञ्जरी, विज्ञान- विशेषाङ्क, नवदेहली। देहलीसंस्कृत – अकादमी, वर्ष 8 अङ्क।

  • घिल्डियालऋ, विनीत, (2007) वैदिक वाङ्मयेपर्यावरण चिन्तनम् संस्कृतमञ्जरी, शोधपत्रिका, नवदेहली देहलीसंस्कृत- अकादमी। वर्ष 6 अङ्क।

  • पाठकः, कमलाकान्त, (2010) अग्निहोत्रेण पर्यावरण शोधनम्ष संस्कृतमंञ्जरी, शोधपत्रिका, नवदेहली, देहलीसंस्कृत – अकादमी, वर्ष 9 अङ्क 2

  • डा. मण्डन मिश्र, संस्कृत संस्कृति मञ्जरी, नाग प्रकाशन, नवदेहली।