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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

सुभाषितानि

गुणैरुत्तमतांयाति
          नोच्चैरासनसंस्थित: ।
प्रासादशिखरस्थोपि
          काक: किं गरुडायते ।।

            #भावार्थ- एक व्यक्ति का मूल्य या उस की उत्तमता उस के स्थान या स्थितिद्वारा निर्धारित नहीं होती बल्कि उस के गुणोंद्वारा निर्धारित होती हैं । राजमहाल की उंचाई पर बैठने से क्या कौवा गरुड नहीं हो जाता हैं ?

Worth or excellence of a person is not determined by one’s location or status but by his/her qualities . For instance , will a crow become an eagle by merely sitting on the top of a palace ?

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणस्यति।।
(#गीता, द्वितीय अध्याय, श्लोक 62-63)

#अर्थ: विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए कोशिश करें कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहा जाए।   
  और क्रोध से संमोह होता है, संमोह से स्मृतिविभ्रम, विभ्रम से बुद्धिनाश, और बुद्धिनाश से इंसान का पतन हो जाता है।

अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं
देहप्रतिष्ठितम्।
मोहादापद्यते मॄत्यु:
सत्येनापद्यतेऽमॄतम्॥
 
अमरता और मॄत्यु दोनों एक ही शरीर में निवास करती हैं, मोह से मॄत्यु प्राप्त होती है और सत्य से अमरत्व॥ 

Immortality and Death both reside in the body only. Death is attained due to delusion and Immortality by truth.

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा !
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् !!

#हिन्दी_अर्थ:- किसी के स्वभाव या आदत को सिर्फ सलाह देकर बदलना संभव नहीं है, जैसे पानी को गरम करने पर वह गरम तो हो जाता है लेकिन पुनः स्वयं ठंडा हो जाता है ।

दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु लीनं दिवाभीतमिवा$न्धकारम्।।
क्षुद्रेपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव।। कुमा.१.१२

तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्नमनोरथा सती।
निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती #प्रियेषु_सौभाग्यफला_हि_चारुता।
 
#हिन्दी_अर्थ- इस प्रकार अपनी आंखों के सामने ही शंकर जी के द्वारा कामदेव को जलाते हुए देखकर पार्वतीजी की अभिलाषा चूर-चूर हो गयी। वह अपने रूप को धिक्कारने लगी। क्योंकि सौन्दर्य की सफलता तभी है जब उससे प्रिय को मुग्ध किया जा सके।।

कुमारसम्भवम्.०१.०५

कृताभिषेकां हुतजातवेदसं त्वगुत्तरासड्ग़वतीमधीतिनीम्।
दिदृक्षवस्तामृषयोSभ्युपागमन्  #न_धर्मवृद्धेषु_वयः_समीक्ष्यते।। कुमारसम्भवम्!१६.०५

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वा युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।। मनुस्मृति.।।

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगूहति गुणान्  प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति  सन्ता।।

अर्थात- एक सच्चे मित्र के लक्षण हैं कि वह हमें पापकर्म करने से रोकता है, हमारे हित के कार्यों को करने के लिये प्रेरित करता है, हमारी गोपनीय बातों को प्रकट नहीं करता है, आपत्ति के समय में भी हमारा साथ नहीं छोडता है, तथा आवश्यकता पडने पर सहायता के लिये तत्पर रहता है।
कर्ममाहात्म्यम्

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, 
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । 
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः, 
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ॥ 
-भर्तृहरिणा, नीतिशतकात्

सरलसंस्कृतार्थ :- कर्मवशादेव ब्रह्मा कुम्भकारवत् सृष्टिकार्यं निरमपयति, विष्णुश्च दशसु अवतारेषु कष्टं सहते । शिवश्च कपालजटितेन पाणिना हस्तेन वा भिक्षार्थं पर्यटति । दिवाकरोऽपि गगने सततं भ्रमति । येन कर्मणा एतेऽपि नियोजिताः तं कर्मम् अवश्यं नमस्करणीयम् ।

हिन्दीसरलार्थ :- जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्माण्डरूपी पात्र के अन्दर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्टतम कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरन्तर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है ।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् |
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ||

#भावार्थ-
नीति-निपुण विद्वान चाहे निंदा करें या प्रशंसा। लक्ष्मी आएं अथवा इच्छानुसार चली जाएं। आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो, परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय-पथ से विचलित नहीं होते।

Worldly-wise may insult or praise. Wealth may come or go by itself. They may die today or may live for hundred years but men of patience never divert from the path of justice.

पित्रा प्रताडितः पुत्रःशिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण यथा भूषणमेव   जायते ।।

भावार्थ--
पिता के द्वारा डांटा गया पुत्र,
गुरु के द्वारा डांटा गया शिष्य तथा
सुनार के द्वारा पीटा गया सोना
ये सब आभूषण ही बनते हैं।

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां् रता:।।

भावार्थः- यो मानवः भोगेषु असक्तो भुत्त्वा तस्य प्राप्ते: साधनरूप-अविद्याया: विविधकर्मणामनुष्ठानं करोति, सः तेषां कर्मणां फलस्वरूपमज्ञानान्धकारेण परिपूर्णविविधयोनयः भोगान् च प्राप्तो भवति। सः मानवः जन्मनः चारमोत्कृष्टलक्ष्यं श्रीपरमेश्वरं न प्राप्य निरन्तरं जन्ममृत्युरूपसंसारस्य प्रवाहे पतितो सन् विविधसन्तापै: सन्तप्तो भवतीति। 
            अपरे ये मानवा: न तु अन्तःकरणस्य शुद्धयर्थं कर्तृत्वभावस्य अभिमानेन रहितकर्मणामनुष्ठानं कुर्वन्ति, तथा नैव विवेकावैराज्ञादिज्ञानस्य प्राथमिकसाधनानामेव सेवनं कुर्वन्ति, परंतु केवलं शास्त्रान् पठितत्वा श्रुत्त्वा च स्वज्ञानस्य मिथ्यारोपं कृत्त्वा ज्ञानाभिमानिन: भवन्ति। एतादृशः ज्ञानाभिमानिन: चिन्तयन्ति यत अस्माकं कृते किमपि कर्तव्यं नास्ति एवं विचिन्त्य ते स्वकर्तव्यानां त्यागं कुर्वन्ति, तथा इन्द्रियाणां स्वाभिप्रायं स्वीकृत्य शास्त्रविरुद्धाचारणं प्रारब्धयन्ति। अतः ते एव कूकर-शूकरादिषु च निकृष्टयोनिषु जन्म प्राप्नुवन्ति।

नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभारणं गुण:।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥
                अर्थात् - : मनुष्य का आभूषण उसका रूप होता है, रूप का आभूषण गुण होता है। गुण का आभूषण ज्ञान होता है और ज्ञान का आभूषण क्षमा होता है।अर्थात् रूपवान् होना भी तभी सार्थक है जब सच्चे गुण, सच्चा ज्ञान और क्षमा मनुष्य के भीतर हो।।

स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम् ।
परिवर्तिनि संसारे मृत: को वा न जायते।।

Who has not died after taking birth in this ever changing world? He alone is considered as born who makes his dynasty prosperous.

इस बदलते संसार में कौन ऐसा है जो जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है। जन्म लेना उसका ही सफल है जिससे उसका वंश उन्नति को प्राप्त हो॥

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥

अर्थः-  के हितार्थ एक का त्याग करना, गाँव के हितार्थ कुल का, देश के हितार्थ गाँव का और आत्म कल्याण के लिए पृथ्वी का त्याग करना चाहिए ।

अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ।।


 अर्थ: - यह मेरा है, वह उसका है, जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं ।। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण वसुंधरा के लोग कुटुम्ब समान हैं ।।





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