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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

सुभाषितानि

गुणैरुत्तमतांयाति
          नोच्चैरासनसंस्थित: ।
प्रासादशिखरस्थोपि
          काक: किं गरुडायते ।।

            #भावार्थ- एक व्यक्ति का मूल्य या उस की उत्तमता उस के स्थान या स्थितिद्वारा निर्धारित नहीं होती बल्कि उस के गुणोंद्वारा निर्धारित होती हैं । राजमहाल की उंचाई पर बैठने से क्या कौवा गरुड नहीं हो जाता हैं ?

Worth or excellence of a person is not determined by one’s location or status but by his/her qualities . For instance , will a crow become an eagle by merely sitting on the top of a palace ?

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणस्यति।।
(#गीता, द्वितीय अध्याय, श्लोक 62-63)

#अर्थ: विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए कोशिश करें कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहा जाए।   
  और क्रोध से संमोह होता है, संमोह से स्मृतिविभ्रम, विभ्रम से बुद्धिनाश, और बुद्धिनाश से इंसान का पतन हो जाता है।

अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं
देहप्रतिष्ठितम्।
मोहादापद्यते मॄत्यु:
सत्येनापद्यतेऽमॄतम्॥
 
अमरता और मॄत्यु दोनों एक ही शरीर में निवास करती हैं, मोह से मॄत्यु प्राप्त होती है और सत्य से अमरत्व॥ 

Immortality and Death both reside in the body only. Death is attained due to delusion and Immortality by truth.

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा !
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् !!

#हिन्दी_अर्थ:- किसी के स्वभाव या आदत को सिर्फ सलाह देकर बदलना संभव नहीं है, जैसे पानी को गरम करने पर वह गरम तो हो जाता है लेकिन पुनः स्वयं ठंडा हो जाता है ।

दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु लीनं दिवाभीतमिवा$न्धकारम्।।
क्षुद्रेपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव।। कुमा.१.१२

तथा समक्षं दहता मनोभवं पिनाकिना भग्नमनोरथा सती।
निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती #प्रियेषु_सौभाग्यफला_हि_चारुता।
 
#हिन्दी_अर्थ- इस प्रकार अपनी आंखों के सामने ही शंकर जी के द्वारा कामदेव को जलाते हुए देखकर पार्वतीजी की अभिलाषा चूर-चूर हो गयी। वह अपने रूप को धिक्कारने लगी। क्योंकि सौन्दर्य की सफलता तभी है जब उससे प्रिय को मुग्ध किया जा सके।।

कुमारसम्भवम्.०१.०५

कृताभिषेकां हुतजातवेदसं त्वगुत्तरासड्ग़वतीमधीतिनीम्।
दिदृक्षवस्तामृषयोSभ्युपागमन्  #न_धर्मवृद्धेषु_वयः_समीक्ष्यते।। कुमारसम्भवम्!१६.०५

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वा युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।। मनुस्मृति.।।

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगूहति गुणान्  प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति  सन्ता।।

अर्थात- एक सच्चे मित्र के लक्षण हैं कि वह हमें पापकर्म करने से रोकता है, हमारे हित के कार्यों को करने के लिये प्रेरित करता है, हमारी गोपनीय बातों को प्रकट नहीं करता है, आपत्ति के समय में भी हमारा साथ नहीं छोडता है, तथा आवश्यकता पडने पर सहायता के लिये तत्पर रहता है।
कर्ममाहात्म्यम्

ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, 
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । 
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः, 
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ॥ 
-भर्तृहरिणा, नीतिशतकात्

सरलसंस्कृतार्थ :- कर्मवशादेव ब्रह्मा कुम्भकारवत् सृष्टिकार्यं निरमपयति, विष्णुश्च दशसु अवतारेषु कष्टं सहते । शिवश्च कपालजटितेन पाणिना हस्तेन वा भिक्षार्थं पर्यटति । दिवाकरोऽपि गगने सततं भ्रमति । येन कर्मणा एतेऽपि नियोजिताः तं कर्मम् अवश्यं नमस्करणीयम् ।

हिन्दीसरलार्थ :- जिस कर्म ने विधाता को ब्रह्माण्डरूपी पात्र के अन्दर कुम्हार की तरह सृष्टि कार्य हेतु नियोजित किया, विष्णु को दशावतार रूपी कष्टतम कार्य में नियुक्त किया, शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन कराया और सूर्य को आकाश में निरन्तर भ्रमण कराता है, उस कर्म को नमस्कार है ।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् |
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ||

#भावार्थ-
नीति-निपुण विद्वान चाहे निंदा करें या प्रशंसा। लक्ष्मी आएं अथवा इच्छानुसार चली जाएं। आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो, परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय-पथ से विचलित नहीं होते।

Worldly-wise may insult or praise. Wealth may come or go by itself. They may die today or may live for hundred years but men of patience never divert from the path of justice.

पित्रा प्रताडितः पुत्रःशिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण यथा भूषणमेव   जायते ।।

भावार्थ--
पिता के द्वारा डांटा गया पुत्र,
गुरु के द्वारा डांटा गया शिष्य तथा
सुनार के द्वारा पीटा गया सोना
ये सब आभूषण ही बनते हैं।

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां् रता:।।

भावार्थः- यो मानवः भोगेषु असक्तो भुत्त्वा तस्य प्राप्ते: साधनरूप-अविद्याया: विविधकर्मणामनुष्ठानं करोति, सः तेषां कर्मणां फलस्वरूपमज्ञानान्धकारेण परिपूर्णविविधयोनयः भोगान् च प्राप्तो भवति। सः मानवः जन्मनः चारमोत्कृष्टलक्ष्यं श्रीपरमेश्वरं न प्राप्य निरन्तरं जन्ममृत्युरूपसंसारस्य प्रवाहे पतितो सन् विविधसन्तापै: सन्तप्तो भवतीति। 
            अपरे ये मानवा: न तु अन्तःकरणस्य शुद्धयर्थं कर्तृत्वभावस्य अभिमानेन रहितकर्मणामनुष्ठानं कुर्वन्ति, तथा नैव विवेकावैराज्ञादिज्ञानस्य प्राथमिकसाधनानामेव सेवनं कुर्वन्ति, परंतु केवलं शास्त्रान् पठितत्वा श्रुत्त्वा च स्वज्ञानस्य मिथ्यारोपं कृत्त्वा ज्ञानाभिमानिन: भवन्ति। एतादृशः ज्ञानाभिमानिन: चिन्तयन्ति यत अस्माकं कृते किमपि कर्तव्यं नास्ति एवं विचिन्त्य ते स्वकर्तव्यानां त्यागं कुर्वन्ति, तथा इन्द्रियाणां स्वाभिप्रायं स्वीकृत्य शास्त्रविरुद्धाचारणं प्रारब्धयन्ति। अतः ते एव कूकर-शूकरादिषु च निकृष्टयोनिषु जन्म प्राप्नुवन्ति।

नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभारणं गुण:।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥
                अर्थात् - : मनुष्य का आभूषण उसका रूप होता है, रूप का आभूषण गुण होता है। गुण का आभूषण ज्ञान होता है और ज्ञान का आभूषण क्षमा होता है।अर्थात् रूपवान् होना भी तभी सार्थक है जब सच्चे गुण, सच्चा ज्ञान और क्षमा मनुष्य के भीतर हो।।

स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम् ।
परिवर्तिनि संसारे मृत: को वा न जायते।।

Who has not died after taking birth in this ever changing world? He alone is considered as born who makes his dynasty prosperous.

इस बदलते संसार में कौन ऐसा है जो जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है। जन्म लेना उसका ही सफल है जिससे उसका वंश उन्नति को प्राप्त हो॥

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥

अर्थः-  के हितार्थ एक का त्याग करना, गाँव के हितार्थ कुल का, देश के हितार्थ गाँव का और आत्म कल्याण के लिए पृथ्वी का त्याग करना चाहिए ।

अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ।।


 अर्थ: - यह मेरा है, वह उसका है, जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं ।। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण वसुंधरा के लोग कुटुम्ब समान हैं ।।





रविवार, 8 दिसंबर 2019

सत्क्रिया की महिमा

या साधूंश्च खलाकरोति विदुषो मूर्खान्हितांव्देषिणः।
प्रत्यक्ष कुरूते परोक्षममृतं हालाहलं तत्क्षणात्।। 
तामाराधय सत्क्रियां भगवती भोक्तुं फलं वाञ्छितम्।
हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वायास्थां वृथा माकृथा।।
 अर्थः - जो सत्किया दुष्टों को साधुता देती है, मूर्खों को पण्डितता, शत्रुओं को मित्रता, गुप्त बातों को प्रगट और विष को अमृत बनाती है। हे साधो! यदि वांछित फल भोगना चाहते हो तो हठ और कष्ट  से अनेक गुणों के साधन में व्यर्थ समय नष्ट  न करो बल्कि उसी सत्किया रूपी भगवती की आराधना करो अर्थात्  श्रेष्ठ आचरण वाले बनो।

गीतायां मूलप्रवृत्तिसिद्धान्तः

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।। (गी.18/48)        

     अर्थ:- स्वभावतः प्राप्तानि दोषयुक्तानि कर्माणि न त्यक्तव्यानि भवन्ति। यथा अग्निना सह धूमस्य संयोगः भवति तथा सर्वाणि कर्माणि अपि दोषैः आवृतानि भवन्ति।
      
         भगवद्गीतायाः आधारेण संस्तुतः शिक्षाशास्त्रीयः "मूलप्रवृत्तिसिद्धान्तः" एव  छात्रान् शिक्षणपरिवेशं प्रति आनेतुम् अभिप्रेरणदृष्ट्या उपकरोति।

कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे 200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन -

कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे 200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन -
          द्रौपदी का एक ही पति था- युधिष्ठिर

_जर्मन के संस्कृत जानकार मैक्स मूलर को जब विलियम हंटर की कमेटी के कहने पर वैदिक धर्म के आर्य ग्रंथों को बिगाड़ने का जिम्मा सौंपा गया तो उसमे मनु स्मृति, रामायण, वेद के साथ साथ महाभारत के चरित्रों को बिगाड़ कर दिखाने का भी काम किया गया। किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी पात्र - चरित्रों में विक्षेप करके उसमे झूठ का तड़का लगाकर महानायकों को चरित्रहीन, दुश्चरित्र, अधर्मी सिद्ध करना था, जिससे भारतीय जनमानस के हृदय में अपने ग्रंथो और महान पवित्र चरित्रों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जाग जाय और प्राचीन आर्य संस्कृति सभ्यता को निम्न दृष्टि से देखने लगें और फिर वैदिक धर्म से आस्था और विश्वास समाप्त हो जाय। लेकिन आर्य नागरिको के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि मूल महाभारत के अध्ययन बाद सबके सामने द्रोपदी के पाँच पति के दुष्प्रचार का सप्रमाण खण्डन किया जा रहा है। द्रोपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजो के हर दुष्प्रचार  और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।_
अब ध्यानपूर्वक पढ़ें---

विवाह का विवाद क्यों पैदा हुआ था:--

(१) अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। यदि उससे विवाह हो जाता तो कोई परेशानी न होती। वह तो स्वयंवर की घोषणा के अनुरुप ही होता।

(२) परन्तु इस विवाह के लिए कुन्ती कतई तैयार नहीं थी।

(३) अर्जुन ने भी इस विवाह से इन्कार कर दिया था। "बड़े भाई से पहले छोटे का विवाह हो जाए यह तो पाप है। अधर्म है।" (भवान् निवेशय प्रथमं)

मा मा नरेन्द्र त्वमधर्मभाजंकृथा न धर्मोsयमशिष्टः (१९०-८)

(४) कुन्ती मां थी। यदि अर्जुन का विवाह भी हो जाता,भीम का तो पहले ही हिडम्बा से (हिडम्बा की ही चाहना के कारण) हो गया था। तो सारे देश में यह बात स्वतः प्रसिद्ध हो जाती कि निश्चय ही युधिष्ठिर में ऐसा कोई दोष है जिसके कारण उसका विवाह नहीं हो सकता।

(५) आप स्वयं निर्णय करें कुन्ती की इस सोच में क्या भूल है? वह माता है, अपने बच्चों का हित उससे अधिक कौन सोच सकता है? इसलिए माता कुन्ती चाहती थी और सारे पाण्डव भी यही चाहते थे कि विवाह युधिष्ठिर से हो जाए।

प्रश्न:-क्या कोई ऐसा प्रमाण है जिसमें द्रौपदी ने अपने को केवल एक की पत्नी कहा हो या अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बताया हो ?

उत्तर:-

(1)-द्रौपदी को कीचक ने परेशान कर दिया तो दुःखी द्रौपदी भीम के पास आई। उदास थी। भीम ने पूछा सब कुशल तो है? द्रौपदी बोली जिस स्त्री का पति राजा युधिष्ठिर हो वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव है?

आशोच्यत्वं कुतस्यस्य यस्य भर्ता युधिष्ठिरः ।
जानन् सर्वाणि दुःखानि कि मां त्वं परिपृच्छसि ।।-(विराट १८/१)

_द्रौपदी स्वयं को केवल युधिष्ठिर की पत्नि बता रही है।_

(2)- वह भीम से कहती है- जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों,जो इन सबसे घिरी हो तथा सब प्रकार अभ्युदयशील हो, ऐसी स्थिति में मेरे सिवा और दूसरी कौन सी स्त्री दुःख भोगने के लिए विवश हुई होगी-

भ्रातृभिः श्वसुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता ।
एवं सुमुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ।।-(२०-१३)

द्रौपदी स्वयं कहती है उसके बहुत से भाई हैं, बहुत से श्वसुर हैं, बहुत से पुत्र भी हैं,फिर भी वह दुःखी है। यदि बहुत से पति होते तो सबसे पहले यही कहती कि जिसके पाँच-पाँच पति हैं, वह मैं दुःखी हूँ,पर होते तब ना ।

(3)-और जब भीम ने द्रौपदी को,कीचक के किये का फल देने की प्रतिज्ञा कर ली और कीचक को मार-मारकर माँस का लोथड़ा बना दिया तब अन्तिम श्वास लेते कीचक को उसने कहा था, "जो सैरन्ध्री के लिए कण्टक था,जिसने मेरे भाई की पत्नी का अपहरण करने की चेष्टा की थी, उस दुष्ट कीचक को मारकर आज मैं अनृण हो जाऊंगा और मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी।"

अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुर्भार्यापहारिणम् ।
शांति लब्धास्मि परमां हत्वा सैरन्ध्रीकण्टकम् ।।-(विराट २२-७९)

इस पर भी कोई भीम को द्रौपदी का पति कहता हो तो क्या करें? मारने वाले की लाठी तो पकड़ी जा सकती है, बोलने वाले की जीभ को कोई कैसे पकड़ सकता है?

(4)-द्रौपदी को दांव पर लगाकर हार जाने पर जब दुर्योधन ने उसे सभा में लाने को दूत भेजा तो द्रौपदी ने आने से इंकार कर दिया। उसने कहा जब राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं अपने को दांव पर लगाकर हार चुका था तो वह हारा हुआ मुझे कैसे दांव पर लगा सकता है? महात्मा विदुर ने भी यह सवाल भरी सभा में उठाया। #द्रौपदी ने भी सभा में ललकार कर यही प्रश्न पूछा था -क्या राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारकर मुझे दांव पर लगा सकता था? सभा में सन्नाटा छा गया।* किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तब केवल भीष्म ने उत्तर देने या लीपा-पोती करने का प्रयत्न किया था और कहा था, *"जो मालिक नहीं वह पराया धन दांव पर नहीं लगा सकता परन्तु स्त्री को सदा अपने स्वामी के ही अधीन देखा जा सकता है।"-

अस्वाभ्यशक्तः पणितुं परस्व ।स्त्रियाश्च भर्तुरवशतां समीक्ष्य ।-(२०७-४३)

"ठीक है युधिष्ठिर पहले हारा है पर है तो द्रौपदी का पति और पति सदा पति रहता है, पत्नी का स्वामी रहता है।"

यानि द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हारे जाने का दबी जुबान में भीष्म समर्थन कर रहे हैं। यदि द्रौपदी पाँच की पत्नी होती तो वह ,बजाय चुप हो जाने के पूछती,जब मैं पाँच की पत्नी थी तो किसी एक को मुझे हारने का क्या अधिकार था? द्रौपदी न पूछती तो विदुर प्रश्न उठाते कि "पाँच की पत्नि को एक पति दाँव पर कैसे लगा सकता है? यह न्यायविरुद्ध है।"

_स्पष्ट है द्रौपदी ने या विदुर ने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। यदि द्रौपदी पाँचों की पत्नी होती तो यह प्रश्न निश्चय ही उठाती।_

इसीलिए भीष्म ने कहा कि द्रौपदी को युधिष्ठिर ने हारा है। युधिष्ठिर इसका पति है। चाहे पहले स्वयं अपने को ही हारा हो, पर है तो इसका स्वामी ही। और नियम बता दिया - जो जिसका स्वामी है वही उसे किसी को दे सकता है,जिसका स्वामी नहीं उसे नहीं दे सकता।

(5)- द्रौपदी कहती है- "कौरवो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नि हूं।तथा उनके ही समान वर्ण वाली हू।आप बतावें मैं दासी हूँ या अदासी?आप जैसा कहेंगे,मैं वैसा करुंगी।"-

तमिमांधर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णनाम् ।
ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः ।।-(६९-११-९०७)

द्रौपदी अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है।

(6)- पाण्डव वनवास में थे दुर्योधन की बहन का पति सिंधुराज जयद्रथ उस वन में आ गया। उसने द्रौपदी को देखकर पूछा -तुम कुशल तो हो?द्रौपदी बोली सकुशल हूं।मेरे पति कुरु कुल-रत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर भी सकुशल हैं।मैं और उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगों के विषय में आप पूछना चाह रहे हैं, वे सब भी कुशल से हैं। राजकुमार ! यह पग धोने का जल है। इसे ग्रहण करो।यह आसन है, यहाँ विराजिए।-

कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः
अहं च भ्राताश्चास्य यांश्चा न्यान् परिपृच्छसि ।-(१२-२६७-१६९४)

#द्रौपदी भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव को अपना पति नहीं बताती,उन्हें पति का भाई बताती है।

और आगे चलकर तो यह एकदम स्पष्ट ही कर देती है। जब युधिष्ठिर की तरफ इशारा करके वह जयद्रथ को बताती है---

एतं कुरुश्रेष्ठतमम् वदन्ति युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ।-(२७०-७-१७०१)

"कुरू कुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही ,धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं।"

क्या अब भी सन्देह की गुंजाइश है कि द्रौपदी का पति कौन था?

(7)- कृष्ण संधि कराने गए थे। दुर्योधन को धिक्कारते हुए कहने लगे"-- दुर्योधन! तेरे सिवाय और ऐसा अधम कौन है जो बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करे जैसा तूने किया। -

कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति ।
आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदीम् त्वया ।।-(२८-८-२३८२)

कृष्ण भी द्रौपदी को दुर्योधन के बड़े भाई की पत्नी मानते हैं।
 द्रौपदी का केवल एक ही पति था - युधिस्ठिर। उनका नाम पांचाली इसलिए था क्योकि वो पांचाल नरेश की पुत्री थी , न की पाँच भाइयों की पत्नी। इसके अन्य प्रमाण भी महाभारत में हैं।

अब सत्य को ग्रहण करें और द्रौपदी के पवित्र चरित्र का सम्मान करें।

कम से कम ईश्वर ने जो बुद्धि ,विवेक दिया है उसका प्रयोग भी कर लीजिए। काहे डब्बे में बंद करके धरती में गाड़ दिए है।
वेदों की ओर चले , मनुष्य बने , तार्किक बने।
बाकि आप खुद ,,,,,,,, समझ लीजिए,,,,,,,

तर्कशील बने।
विज्ञानवादी बने।
भारत को सामर्थ्यशाली बनाएँ !

पर्दाफाश होगा।
आज नही तो कल निश्चित होगा।।

देश के लोगों का मान सम्मान स्वाभिमान छीनने वाले दुश्मनों का सत्यानाश होगा।
जब शेर जागेगा तो लुटेरा गीदड़ दम दबाकर भागेगा।।

           अंधविश्वास भगाओ
          आत्मविश्वास जगाओ

शिक्षित बनो और शिक्षित करो।

सबेरा और उजाला तब नहीं होता जब सूर्योदय होता है, उसके लिए आंखें भी खोलनी पडती है।

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

शोधसंक्षिप्तिका संस्कृत

श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था संक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता ।

यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ।।

(मालविकाग्निमित्रम् 1/16)

शोधस्य पृष्ठभूमिः (Preface of Research)

    वेदाः सन्त्यानुसन्धातृभिः महर्षिभिरनुभूतस्य परमतत्त्वस्य बोधयितारो भूत्वा भुवि विभान्ति । यत्र प्रत्यक्षस्य न च अनुमानस्य प्रवेशस्तत्रापि ते प्रविशन्ति । एषामेव भारतीयसभ्यता-संस्कृतेश्चाधारमूलानां शिक्षा वर्तते षडङ्गेषु आद्यमङ्गमत्र । स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते च सा  शिक्षेति । वेदानां वैदिकसाहित्यस्य वा अध्ययनाध्यापनविषयकविधीनां निर्देशः शिक्षाशास्त्रे कृतः । शिक्षाशास्त्रेतिहासः पुरातनतरः वर्तते । संस्कृतवाङ्मये विशेषतः व्याकरणशिक्षणं प्रमुखं स्थानं भजते । प्रत्येकं भाषा तत्तद्वयाकरणनियमानुसारं स्वीयपरिधिनिर्माणपुरस्सरं विशिष्टां रूपरचनां सृजतीति स्पष्टमेव ।

    संस्कृतभाषा भाषास्वादिभाषा । यास्क-पाणिनि-पतञ्जलिप्रभृतीनां विद्वद्धौरेयाणां ग्रन्थाः संस्कृतभाषायाः लोकव्यवहृतेश्च सन्ति समुज्ज्वलानि ज्वलन्ति प्रमाणानि । भारतीयभाषासु सुरमणीया, सुललिता, मधुरा, सर्वप्राचीना चेयं संस्कृतभाषा कठिनेति मन्वानाः बहवः एतदध्ययनात् पराङ्मुखाः तिष्ठन्ति । तत्रैव एतदपि आश्चर्यभूतं दरीदृश्यते यत् सहस्रशः संस्कृतविद्वान्सः, सेवारताध्यापकाः, अध्येतारः, समर्पितजीवनाः संस्कृतप्रचारकाः छात्राः, बान्धवाः च अस्याः अभ्युत्थानाय अहर्निशं यतमानाः सन्ति । एतेषां प्रोत्साहनाय संस्कृतायोगः ऊर्जाबलं यथासमयं प्रयच्छत्येव । संस्कृतभाषाशिक्षणे विविधेषु आधुनिकेषु शिक्षाशास्त्रग्रन्थेषु सत्सु प्राविधिक-शास्त्रप्रतिपादिते अभिक्रमिताधिगमप्रविधिप्रतिपाद्यः रेखीयाभिक्रमिताधिगमः विषयेऽस्मिन् किञ्चिदनुसन्धाय तस्य व्याकरणांशाधिगमे कीदृशो प्रभावः भवतीति जिज्ञासया कारकाधिगमे रेखीयाभिक्रमस्य प्रभावेति समस्यामाहृत्य प्रयोगात्मकमनुसन्धानं विधास्यते ।

शोधक्षेत्रम् (Research Area)

अस्त्युत्तरां दिशमलङ्कुरुते प्रकामं हैमाचलः सकलपर्वतराजिराजः ।

स्थूलाङ्गतुङ्गशिखरावलिभिवृतो यः स्रग्भिर्यथा सुरसरितसुमजाभिरिन्द्रः ।।

महाहिमवन्तस्य उपत्यकासु वासकारणादस्य प्रदेशस्य नाम हिमाचलमिति अभूत् । हिमाचलप्रदेशस्य शाब्दिकार्थः भवति हिमावृतपर्वताभ्यन्तर्स्थितप्रदेशः इति प्रदेशोऽयं पर्वतराज्ञी, देवभूमिः, बुद्धभूमिश्चापि नामाख्याता वर्तते । 55673 वर्गकिलोमीटर्-परिमितो विस्तीर्णोऽयं देवभूमिति कथ्यमानः प्रदेशः 26 जनवरी,1971 तमे वर्षे पूर्णराजस्वमाप्नोत् । प्रदेशेऽस्मिन् द्वादशजनपदाः वर्तन्ते । एषु द्वादशसु जनपदेषु सर्वाधिके (297 संख्यात्मके) उच्चमाध्यमिकविद्यालययुते  अनुसन्धात्रा चित्ते काङ्गड़ाजनपदे  एव शोधाध्ययनं समपत्स्यते । 


शिक्षा (Education)

    संस्कृतभाषायां शिक्षा  इति पदस्य व्युत्पत्तिः शिक्ष् विद्योपादाने इति धातोः गुरोश्चहलः इति पाणिनिसूत्रेण अ प्रत्यये सति निष्पन्ना भवति । अस्यार्थो भवति विद्याग्रहणम्  इति (ऋग्वेदः)। वेदेषु सर्वत्र स्वरप्राधान्यं भवत्येव, स्वरभेदनार्थभेदसम्भवात् । इदं स्वरज्ञानं शिक्षाधीनं भवति । अतः शिक्षाशास्त्रस्य वेदाङ्गता सुतराम् उपपद्यते ।

माध्यमिकस्तरःMiddle Level माध्यमिक-शिक्षाऽऽयोगः1952-53( मुदालियरायोगः)

    अस्याध्ययनस्तरस्य संस्तुतिः भारतसर्वकारेण माध्यमिक-शिक्षाऽऽयोगाय प्रदत्ता अस्ति । अनेन आयोगेन अत्र माध्यमिकस्तरे शिक्षोद्देश्यानि परिष्कृतानि सन्ति । सामान्यतः आयोगस्यास्य निश्चितोऽयं स्तरः यत् षष्ठीकक्ष्यारभ्य दशमीकक्ष्यापर्यन्तं माध्यमिकस्तरः वर्तते । अस्य स्तरानुगुणं प्राचल्यमानस्य पाठ्यक्रमस्य एव अध्यापनं विद्यालयेषु अध्यापकः सम्पादयति ।

कारकम् ( Karakam)

    क्रियान्वयि कारकम् इति पाणिनिसम्मत्तम् । अर्थात् क्रियायाः अन्वयः क्रियान्वयः । अन्वयः नाम सम्बन्धः । क्रियान्वयः अस्तीति क्रियान्वयि । यः क्रियया अन्वेति (सम्बन्धं प्राप्नोति) सः कारकमित्युच्यते इति फलितार्थः । व्याकरणशास्त्रे कारकाणि षडविधानि निगदितानि -

कर्ता कर्म च करणं सम्प्रदानं तथैव च ।

आपादानाधिकरणम् इत्याहुः कारकाणि षट् ।। 

रेखीयाभिक्रमः(Linear Programme)

    रेखीयाभिक्रमः अर्थात् शिक्षणक्रमबद्धता । शृङ्खलाभिक्रम-बाह्यानुदेशनप्रभृतनामभिः बहुश्रुतः अयं सक्रिय-शिक्षणानुबद्धताक्रमः अभिक्रमिताधिगमहेतुः अनुदेशनप्रदायकः प्रकारविशेषो वर्तते । अभिक्रमितानुदेशनप्रक्रियायाम् अस्य एव प्रकारविशेषस्य शिक्षणे आद्यप्रयोगः शैक्षिकप्रविधौ उपादेयः प्रोक्तः । मनोवैज्ञानिकस्य श्रीमतःबी.एफ्.स्किनरमहोदयस्य नामोल्लेखः महत्तां भजते यः 1943 तमे वर्षे कपोतानामुपरि प्रयोगं विधाय अधिगमाय  सक्रियानुबन्धानुक्रियेति सिद्धान्तस्य प्रतिपादनमकरोत् । रेखीयाभिक्रमे विषयस्य लघुषु-लघुषु पदेषु विभाजनं क्रियते । एतेषु पदेषु त्रीणि तत्त्वानि निहितानि भवन्ति । उद्दीपन-अनुक्रिया-पुनर्बलनादयः इत्येते त्रयः बिन्दवः शिक्षणस्य सफलतां परिपोषयन्ति । रेखीयाभिक्रमे प्रस्तावनापद-शिक्षणपद-अभ्यासपद-परीक्षणपदञ्चेत्येते पाठनस्य पदविभागाः सन्ति । तन्त्रांशोपागमे यदा शिक्षायां बलं दीयमानमासीत् तदा स्वाध्यायसामग्रीनिर्माणे प्रयासः क्रियमाणः आसीत्  । तस्मिन् स्किन्नरयोगदानपरिणामरूपः रेखीयाभिक्रमः स्वाध्यायसामग्रीनिर्माणप्रक्रमः सृष्टो वर्तते । प्रवर्तमानानेहसि उदाहरणत्वेन दूरस्थशिक्षणपाठ्यक्रमः एतदेव सिद्धान्ताधारितो वर्तते । मनोवैज्ञानिकसिद्धान्ताधारितेऽस्मिनभिक्रमे छात्राणां व्यक्तिगतविभिन्नताधारितं शिक्षणं, तार्किकक्रमेण, क्लिष्टविषयाणां बोधगम्यतासम्पादनं विशेषतया प्रवर्तते । 

समस्याकथनम् (Statement of the Problem)

    हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्च-माध्यमिकस्तरच्छात्राणां कारकाणामधिगमे रेखीयाभिक्रमस्य प्रभावः ।

अध्ययनस्य आवश्यकता महत्त्वञ्च (Need and Importance of Study )

    शिक्षाजगति संस्कृतवाङ्मये प्रमुखनामाख्यातस्य व्याकरणस्याध्ययनं विधिनानेन कर्तुं शक्यं न वा इत्यनया जिज्ञासया अनुसन्धाने प्रविधिरयं व्याकरणशिक्षणाय चितः। व्याकरणशास्त्रे विषयविशालतां परिदृश्य कारकं नाम्ना छात्रोपकारकः प्रचलितः विषयः अनुसन्धानाय चितः । उच्च-माध्यमिकस्तरे विषयस्यास्य अधिगमः छात्राणां न संभवति । अतः एतस्मै स्तराय कारकविषयः सुलभतरः भवेदिति मत्वा अयं प्रविधिः अनुसन्धानाय स्वीकारि ।

    अपि च यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणमिति भाषा शुद्धतायाः स्पष्टतायाः वा ज्ञानसम्पादनार्थम् अनुसन्धानविषयः परिकल्पितो वर्तते । यतः क्लिष्टमिदं व्याकरणशास्त्रं तस्मात् सुलभोपायाभावे संस्कृतव्याकरणांशाः सुकरतया अवगन्तुं शक्येति प्रतिपादयितुम् अध्ययनस्य आवश्यकता वर्तते नितराम् ।



अध्ययनस्योद्देश्यानि (Aims of Study) 

  1.  हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे रेखीयाभिक्रमस्य प्रभावपरिशीलनम्  ।

  2. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे रेखीयाभिक्रम-पाठ्यक्रमः कारकाधिगमं प्रभावयति न वा इति परीक्षणम् ।

  3. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे स्वाध्यायेन छात्रेषु जायमानायाः अवबोधशक्तेः अध्ययनम् ।

  4. उच्चमाध्यमिकस्तरीयच्छात्रेषु कारकाधिगमार्थं रेखीयाभिक्रमाणां निर्माणम् ।

  5. उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाधिगमार्थं निर्मितानां रेखीयाभिक्रमाणां प्रामाणिकतासम्पादनम् । 

  6. उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाधिगमे लिङ्गमिति चरस्य प्रभावपरिशीलनम् ।

  7. उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाणामधिगमे शालाप्रकारः इति चरस्य प्रभावपरिशीलनम् ।

  8. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाधिगमे प्रान्तीयता (ग्रामीणनागर) इति चरस्य प्रभावपरिशीलनम् ।

अध्ययनस्य प्राक्कल्पना ( Hypothesis of Study)

  1. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाणामधिगमे रेखीयाभिक्रमिताधिगमसामग्र्याः प्रभावः न स्यात् ।

  2. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ-उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाणामधिगमे लिङ्गमितिचरस्य प्रभावः न स्यात् । 

  3. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ- उच्चमाध्यमिकस्तरे कारकाणामधिगमे शालाप्रकारः इति चरस्य प्रभावः न स्यात् । 

  4. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ- उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाधिगमे प्रान्तीयता (ग्रामीणनगर)   इति चरस्य प्रभावः न स्यात् ।

  5. हिमाचलप्रदेशस्य काङ्गडाजनपदस्थ- उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु कारकाधिगमे स्मृति-अवबोध-चिन्तनस्तरेषु पारम्परिकस्वाध्याय-अभिक्रमिताधिगमसामग्र्योः प्रभावे भेदः न स्यात् । 

अध्ययनस्य सीमाङ्कनम् (Limitations of Study)

    करिष्यमाणेऽस्मिन् अनुसन्धानकार्ये क्षेत्रविषयबहुलतां च मनसि निधाय विस्ताराधिक्यम् अनाचरय्य विषयस्य अध्ययनाय क्षेत्रसीमा अर्थात् परिमितिः काचिद् निर्धारिता वर्तते -

1. प्रस्तुताध्ययने कारकाणामधिगमाय चित्तः रेखीयाभिक्रमप्रविधिः उच्चमाध्यमिकस्तरच्छात्रेषु एव प्रयुक्तो भविष्यति ।

2.उच्चमाध्यमिकस्तरे नवमी-दशमीकक्षयोः अधीयानाच्छात्राः एव अध्ययनाय ग्रहिष्यन्ते ।

3.अध्ययनाय विविधपाठ्यक्रमाधारिताः उच्चमाध्यमिकपाठशालाः एव स्वीकृताः भविष्यन्ति ।

4.सर्वकारेणानुदानिता तथा च अनुदानेतरोच्च-माध्यमशालाश्च प्रयोगार्थं स्वीकृताः भविष्यन्ति ।

शोधविधिः(Method of Research)      प्रस्तुतशोधकर्मणि तस्य प्रकृतिम् आवश्यकतां क्षेत्रं  च मनसि निधाय अस्मिन् विषये प्रयोगात्मकविधेः एव प्रयोगः भविष्यति ।

अध्ययनस्य न्यादर्शः (Sample of Study)

    समयस्य धनस्य मानवशक्तेः साधनानाञ्च सदुपयोगितायाः प्रवर्तकः परिगण्यते न्यादर्शः । वैज्ञानिकाध्ययने न्यादर्शेण विना समस्यानां समाधानं भवितुं न अर्हति । अतः न्यादर्शानाम् अनुसन्धानकर्मणि विशिष्य शैक्षिकानुसन्धाने अन्यतमा भूमिका वर्तते ।

    राज्यशः भारतवर्षे शिक्षाजगति माध्यमिकशिक्षायां विविधता परिदृश्यते । अनुसन्धात्रा शोधाध्ययनाय चित्ते हिमाचलप्रदेशे माध्यमिकस्तरभेदानां विवरणमिदमित्थम्प्रकारेण वर्तते-

       

        षष्ठीतः अष्टमीकक्ष्यापर्यन्तम् - माध्यमिकस्तरः 

        षष्ठीतः दशमीकक्ष्यापर्यन्तम् - उच्चमाध्यमिकस्तरः

        षष्ठीतः द्वादशीकक्ष्यापर्यन्तम् - वरिष्ठमाध्यमिकस्तरः

हिमाचलप्रदेशे काङ्गडाजनपदे षष्ठीतः दशमीकक्ष्यापर्यन्तम् उच्चमाध्यमिकविद्यालयानां संख्यात्मकं विवरणम् -

        आहत्य (वर्ष-2012) उच्चमाध्यमिकविद्यालयाः  297 

        हिमाचलसर्वकारीया उ.मा.वि.(H.B.S.E) 65

        केन्द्रिय-स्कूलशिक्षाबोर्ड उ.मा.वि.(C.B.S.E) 41

        भारतीय-विद्यालय-शिक्षापरिषद् उ.मा.वि.(I.C.S.E) 3

        निजी-उ.मा.वि.(PRIVATE) 188 

    शोधकर्त्रा शोधाध्ययनाय उच्चमाध्यमिकस्तरे द्वे (नवमी-दशमी) कक्ष्ये स्वीकृते स्तः । अत्र दशमीकक्ष्या बोर्डकक्ष्या वर्तते । तत्र अनुसन्धानाध्ययनाय पूर्णतः अवकाशः न प्राप्येत । अतः शोधाध्ययनाय चिकार्षीत् । शोधार्थी     परीक्षणाय उच्चमाध्यमिकविद्यालयस्य द्विशतच्छात्रान् स्वीकरिष्यति । प्रायोगिकविधिना च छात्राणां परीक्षणं करिष्यति ।

न्यादर्शविवरणम् -

    उ. मा. वि. नाम                                                            छात्रसङ्ख्या

                                    बालकाः            बालिकाः

हिमाचलसर्वकारीया उ.मा.वि.(H.B.S.E)                 25            25

केन्द्रिय-स्कूलशिक्षाबोर्ड उ.मा.वि.(C.B.S.E)                 25            25

भारतीय-विद्यालय-शिक्षापरिषद् उ.मा.वि.(I.C.S.E)              25            25

निजी उ.मा.वि.(PRIVATE)                          25            25

एवं स्वीकृतानां न्यादर्शानामाधारेणैव शोधाध्ययनं सम्पत्स्यते ।


प्रयक्तोपकरणानि  ( Tools to be used ) 

    - रेखीयाभिक्रमयुतनिर्मिता कारकविषयिणी पाठ्यसामग्री ।

    - पूर्वोत्तरपरीक्षापत्रे ।

प्रदत्तानां संकलनम् (Data Collection)

    शोधकर्त्रा प्रश्नावल्या आधारेण प्रदत्तानामेकत्रीकरणम् एवञ्च संकलितरूपस्य विश्लेषणं करिष्यते ।

प्रदत्तानां विश्लेषणम् एवञ्च व्याख्या (Analysis of Data)

    प्रस्तुतेऽस्मिन् शोधकार्ये शोधकर्ता प्रदत्तानां सांख्यिकीयविधिभिः विश्लेषणं व्याख्यां च करिष्यति।

प्रयुक्तसांख्यिकीयविधयः(Use of Statistical Method)

    मध्यमानम्            (Mean)

    प्रामाणिकं विचलनम्        (Standard Deviation)

    टी.मूल्यपरीक्षणम्        (T-Value)

    स्तम्भाकृतयः            (Histograms)


निष्कर्षः(Finding)प्रदत्तानां विश्लेषणस्याधारेण निर्दिष्टानां परिकल्पनानां परीक्षणं प्रवर्तयिष्यते । परीक्षणस्याधारेण परिपृष्ट्यादिविषयाणां परिज्ञानं भविष्यति । अस्याधारेण च शोधकर्त्रा शोधस्य निष्कर्षः निष्कासयिष्यते  ।





शोधस्य प्रारूपम् (Design of Research)

प्रथमोऽध्यायः

        1.1 प्रस्तावना

        1.2 समस्याकथनम्

        1.3 शोधस्यावश्यकता

        1.4 शोधोद्देश्यानि

        1.5 शोधप्राक्कल्पना

        1.6 सीमाङ्कनम्

        1.7 पारिभाषिकशब्दावली

द्वितीयोऽध्यायः

        2.सम्बन्धितसाहित्यस्याध्ययनम् ।

तृतीयोऽध्यायः

        3.1 शोधप्रविधिः

        3.2 शोधन्यादर्शः

        3.3 शोधोपकरणानि

        3.4 प्रदत्तानां संकलनम् 

चतुर्थोऽध्यायः

        4.प्रदत्तानां सांख्यिकीयविधिभिः विश्लेषणं व्याख्या च ।

पञ्चमोऽध्यायः

        5.1 शोधसारांशः

        5.2 शोधनिष्कर्षः

        5.3 शोधपरामर्शः 

        5.4 भाव्यानुसन्धानम्

सन्दर्भग्रन्थसूची

परिशिष्टम्

प्रश्नावली

प्राचीन वेदानुसारेण पर्यावरणस्य सम्प्रत्यानाम् अध्ययनम्।।


।।प्राचीन वेदानुसारेण पर्यावरणस्य  सम्प्रत्यानाम् अध्ययनम्।।

                                                 कपिलदेवः।।

   श्री सरस्वती वाग् अधिष्ठात्री नमः।।

     श्री सीतारामचरकमलेभ्यः नमः।।

  • शिक्षायाः स्वरूपम् –

    समग्रे प्राणिसंसारे मानवमहत्ता शिक्षयैव मन्यते। शिक्षादीप्तिदीपितः एव पुरुषः क्रेमेकोन्नतिमातमोतु। अगकनीयां योनिपरम्परामनुसेत्य स्वकर्मफलानुसारमेव जीवो मानवयोनिं प्राप्नोति। सहजतया मानवजन्मः न लभ्यते, मानवजन्म तु प्राक्कालिकजन्मजन्मारार्जितानां पुण्यनां फलमेवास्ति। यत् पुण्यं मानवजीवन – प्रदमुन्नतिकरञ्च कथ्यते तत्पुण्यं पुरूषे  शिक्षयैव विद्यते। सम्पाद्यते च मानवानां निखिलमप्युन्नतिमयं जीवनं शिक्षाश्रियमेव वेद्यम्। वेदविद्यावता आद्यां स्मृतिपरम्परामुदन्मायता मनुना भुतेषु प्राणिनां प्राणिषु बुद्धिजीविनां, कृतबुद्धिषु कतृणां, कर्तृषु, ब्रह्मविदो श्रेष्ठता समाख्याता। तथाहि –

भुतानां प्राणिनः श्रेष्ठा प्राणिनां बुद्धिजीविनः। 

बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्माणाः स्मृताः।

ब्राह्माकेषु च विद्वांसो विदवत्सु कृतबुद्धयः।

कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिन।

वेद शास्त्र – विज्ञानादीनां साध्वनुशीलने तत्त्वार्थज्ञानं च विद्येति। स्वीक्रियते -    “अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विद्यत्राऽमृतमश्नुते” इति खलु वेदघोषः।

    सा विद्या एव प्रकृष्टा या विद्या मुक्तिं प्रददाति। उपनिषदाम् अनुसारेण द्वे विधाः परा अपरा च। यथा विद्यया लौकिकं ज्ञानं ज्ञायते, सा अपरा विद्या। यथा च अक्षर – ब्रह्माविषयकं ज्ञानं ज्ञायते, सा परा विद्या। लौकेऽस्मिन् विद्या एव तज्ज्योतिः यद् ज्ञायते, सा परा विद्या। लोकेऽस्मिन् विद्या एव तज्ज्योतिः यद् मानवे ज्ञानज्योतिं ज्वालयति, अविद्यान्धतमसं व्यपोहति, दुर्गकरणं वारयति, सद्गुकततिं संचारचति, कार्ति प्रथयति, गौरवं विकासयति, यशो वितनोति, भूभूत्सु च आदरम् आवहति। एषा मातृवत् संरक्षिका, पितृवत्  सत्पथप्रदर्शिका, कान्तावत् सुखदामनोञ्जिका च, कार्तिप्रदा, वैभवदायिनी। दुगुणगणनाशेन मनसः पावयित्री च।

मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते कान्तेवचाभिरमयत्यपनीय खेदम्।

लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कार्तिः किं किं न साध्यति कल्पलतेव विद्या।

                                    (निबन्धशतकम्)

  • शिक्षाया अर्थः –

    शिक्षायाः शाब्दिकार्थे शब्दस्य कोऽर्थः अभिप्रेत इत्यास्मिन् विषये चर्चा विधीयते। “शिक्ष – विद्योपादाने इत्यस्माद् भौवादिकधातोः”, “गुरोश्च हलः” इति राणिनीय सूत्रेण अ- प्रत्यये सति “अजाद्यतष्टाप” इति टापि शिक्षा इति शब्दाः निष्पद्यते। शिक्षाशब्देन प्रमुखतया विद्याग्रहणमेव ध्वन्यते। अपि च  ‘शक्लृ - शक्तौ’ इत्यस्मात् सौवादिकधातोः सति प्रत्यये सति स्त्रियां पूर्ववदेव अ – प्रत्यये टापि च शिक्षा – शब्दो निष्पद्यते। परमनेन शब्देन अर्थाद्वयं निस्सरति। ‘शिक्षेर्जिज्ञासायाम् इति वार्तिकप्रमाणेन यदा अयं जिज्ञासावाची भवति। तदा विद्यासु शिक्षते इतिवत्। शब्दोऽयं जिज्ञायार्थकः भवति। यदा शक्तुमिच्छति इत्यर्थे शिक्षाशब्दः तदा अयं ग्रहीतुः सामर्थ्यप्रदायिवस्तु भवति। प्रकारान्तरेण त्रिष्वप्यर्थेषु विद्योपादाने जिज्ञासायां सामर्थ्यलाभे चायं शिक्षाशब्दः महान्तमर्थं प्रकृटयति। यतो हि विद्याग्रहणे जिज्ञासैव प्रवर्त्तयति विद्यार्थिनम्। ततः जिज्ञासया विद्यायाः ग्रहणे सति सामर्थ्यवर्धनं भवत्यैव।

 पर्यावरणसम्प्रत्ययः -

    परि+आवरणम् इत्याभ्यां प र्यावरणम् इति पदं निष्पन्नम्। परि इत्यस्य अर्थः भवति चतस्रः दिशः इति। आवरणम् इत्ययं शब्दः ‘अ’ इति उपसर्गपूर्वकम् वृञ् – वरणे इत्यस्मात् धातो ल्युट प्रत्ययान्तः वर्तते। अस्यार्थः आच्छादितम् इति। पर्यावरणम् इति पदस्य तात्पर्यार्थः भवति चतसृभिः दिग्भिः आच्छादितम् इति। परितः आवरणमेव पर्यावरणम्। अस्मान् परितः यानि तत्वानि विलसन्ति तानि सर्वाणि पर्यावरणम् इति नाम्ना व्यपदिश्यन्ते। यथा समीरः, आपः, अग्निः, वनस्पतिः, वृक्षः, खगः, जन्तुः, कीटः, मनुष्यः इत्यादयः। एतेषां समेषां तत्वानां समाहारः पर्यावरणम् भवति। 

जड़चेतनात्मके अस्मिन् जगति प्राणीमात्रस्य जीवनाय कतिचित् तत्त्वानि महदावश्यकानि सन्ति। यथोदर पोषणाय आहारः पिपासा शान्त्ये जलं निःश्वास - प्रश्वासाय वायुश्च एतानि जीवनावश्यकतायै अत्यन्तावश्यकानि तत्त्वानि। कतिपयः – कारणेभ्यः आधुनिकसंस्कृतिमये नाना जीवव्याप्ते पृथ्वीतले दोषपूर्णानि भवन्ति दृश्यन्ते प्रतीयन्ते च। हेतोरस्मात् पृथिव्यां निवसद्भिः प्राणिभिः सहैव वृक्षवनस्पतीनामपि जीवितत्वं काठिन्यं भजति।    यथा खलु वयं जानीमः अनुभवामश्च जगदिदं स्थावरजंगमात्मकं तत् द्वन्दैः निर्मितं स्थितीकृतं चास्ति। एतेषु द्वन्देषु स्थिरीभूतेषु अस्याः सृष्टेः स्थिरता सभ्यात्यते नान्यथा। वस्तुतस्तु एषा द्वन्दात्मकता – जगत – सर्जनायाः महानतमनियमेषु अन्यतमा विद्यते।                        यदा चास्माभिः पर्यावरणं प्रति दृष्टिः निक्षिप्यते तदा अवबुध्यते तत् पर्यावरणदृशो प्राणिधारिभिः सह तदितरेषां वन - वृक्षसागरसरितां गहनम सामञ्जस्यं वर्तते। सम्प्रति विज्ञानेन सूक्ष्मस्थूलाध्ययनाभ्याम् अन्वेषणेन च परीक्ष्य तथ्यमिदं स्पष्टीकृतमस्ति यत् वृक्षवनस्पत्यादिभिः श्वसनप्रक्रियायां विसर्जितः ओषजन (आक्सीजन – अभिधानो वायु - विशेषः) श्वसद्भिः समस्तप्राणिभिः श्वसनक्रियायै ग्राह्यो अस्ति, यतः वायु विशेषोऽयं रक्तशोधेन परमाववश्यकः।    वेदेषु बहवः मन्त्राः तादृशाः सन्ति ये खलु पूर्णतः पर्यावरणेन सम्बद्धा सन्ति। यथा एकस्मिन् मन्त्रे वैदिकः ऋषिः वनस्पतिं प्रार्थयति -                                     “ओषधिः प्रतिमोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः।                            अश्वाऽइव सजित्वरी व्वीरुधः पारयिष्णवः।।” (ऋग्वेद -4 )       

अन्यत्र च ऋषिः ओषधिं प्रार्थयति यत् -                                                “त्वां गन्धर्व्वाऽअखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।                          त्वामोषधे सोमो राजाव्विद्वान्यक्ष्मादमुच्यत्।।”                अर्थात् हे ओषधेः त्वामिन्द्रः बृहस्पत्यादयः महान्तो देवा अद्नन् त्वत्प्रभावात् सोमाभिधः औषधीशः यक्ष्माद्यात् रोगात् विमुक्तः सञ्जातः इति।

पर्यावरणचक्रम्













  • पर्यावरण किम् –                                                 

        पृथिव्यां यस्मिन्भागे जीवधारिणी निवसन्ति तज्जीवमण्डतमित्युच्यते। जीवमण्डलस्य मापं प्रायः स्थिरमस्ति। श्रेत्रमिदमाधुनिक – वैज्ञानिक-दृष्ट्या पृथिवीतः प्रायः सप्तदश – क्रोशं (किलोमिटर) यावद् ऊर्ध्वं   विस्तीर्णमस्ति। जीवमण्डले पृथिवी – वायु – जल – वृक्ष- वनस्पतयः सर्वे च जीवाः वसन्ति। प्राणिमण्डले पृथिवीवायुजलेन समुद्रोऽस्ति च एतानि त्रीण्यपि तत्त्वानि जीवनायावश्यकानि सन्ति।                     

           वेदा अस्माकमास्थायाः प्रतीकाः सन्ति। संस्कृतसाहित्यस्योद्गमस्थलाश्च संस्कृतेः सभ्यतायाः ज्ञानविज्ञानस्योन्नायकाः विधायकाश्च वेदाः। वेदेषु पर्यावरणमेव मानवस्य समग्रोन्नत्याः केन्द्रबिन्दुः वैदिकसाहित्यमस्ति। यद्यपि अल्पज्ञाः – मन्दमतयः वेदानां वैदिकप्रकृतिम् अनुसृत्य तस्य अर्थनिरूपणार्थे प्रयत्नं कृतवन्तः यस्मात् वेदानां वैज्ञानिकतायां प्रश्नचिह्नम् उद्भवति। ऋषिप्रणीतार्थानां प्रतिपादनं वैज्ञानिकतायाः पराकाष्ठा। लौकिक – वैदिकार्थानां भिन्नतां प्रदर्श्य वैदिकसाहित्यं यं मार्गमदर्शयत् तत् स्मरणीयमस्ति। पर्यावरणीया व्यवस्था वेदचतुष्टये येन केनाऽपि रूपेण लभ्यते किन्तु यजुर्वेदे मुख्यतः कर्मकाण्डस्य विषयत्वात् पूर्णं विवेचनं प्राप्यते। यजुर्वेदस्य प्रथमः मन्त्रः एव अस्य परिचायकः। अस्य वेदस्य एकस्मिन् मन्त्रे जगति व्याप्तकलानां वर्णनमस्ति यत्र पृथिव्याकाशवायु – अग्नीनां प्रतिपादनमस्ति। एतत् सर्व परमात्मना प्रजायाः प्रकाशाय विरचितम्। एताः षोडशकलाः सन्ति। यथा – 

  1. ईक्षणं (यथार्थविचारः)।

  2. प्राणः (वायु) यः विश्वं विभर्ति।

  3. श्रद्धा (सत्ये विश्वासः)।

  4. आकाशः।

  5. वायुः।

  6.  अग्निः।

  7. जलम्।

  8. पृथ्वी।

  9. इन्द्रियाणि।

  10. मनोज्ञानम्।

  11. अन्नम्।

  12. वीर्यम्।

  13. तपः (धर्मानुष्ठान् - सत्याचारौ)।

  14. मन्त्राः (वेदविधा)।

  15. कर्माणि (सर्वचेष्टाः)।

  16. नाम (अर्थात् दृश्यादृश्य पदार्थानां संज्ञा)।

           ऐतरेब्राह्माणे अपि उक्तमस्ति – ‘मनुष्यसमूहस्य सुखं यज्ञेन भवति।’ संस्कारितद्रव्याणां हवनेन विदुषे मानवाया आनन्दः प्राप्यते यतोहि परमार्थात् ईश्वरः परोपकारिणं नानाविधसुखैः तर्पयति।

       शतपथब्राह्मणेऽप्युक्तमस्ति यत् हवने यानि द्रव्यानि क्षिप्यन्ते तैः धूमः वाष्पश्च उत्पद्यते यतोहि अग्नेः स्वभावः पदार्थषु प्रविश्य छिन्नं भिन्नं करोति पश्यात् ते लघु भूत्वा वायुना सह आकाशे सह आकाशे व्याप्नुवन्ति।

‘अग्नेर्वैधूमो जायते धूमाद् भ्रमाद् वृष्टिरग्नेर्वा एता जायन्ते तस्मादांह तपोया इति।’

             ऋग्वेदे इन्द्रवृत्रासुरसूक्तं पर्यावरण – शिक्षायाः सुरक्षायाः च विषयः समेषाम् अवधानम् आकर्षयति। महर्षिः स्वकीये भाषार्थे वर्णनं सुन्दररूपेण कृतवान्। इन्द्र इति सूर्यस्य नाम, यः महान् पराक्रमी तेजोवान् चाऽस्ति। सः स्व – किरणैः वृत्रं अर्थात् मेघं हन्ति, स च मृतो भूत्वा पृथिव्यां पतति तां च व्याप्नोति तथा महद् इन्द्रियरूपेण परिपूर्णा भूत्वा समुद्रे मिलति, पुनः सूर्येण मेघरूपे व्याप्नोति। वृत्रस्य अस्मात् जलरूपशरीरात् बहव्यः नद्यः उत्पन्नाः भूत्वा अगाधे समुद्रे मिलन्ति, अवशिष्चं जलं कूपतडागादिजलाशयेषु विद्यते तत् मन्ये पृथिव्यां शेते इव।

  • ज्योतिषशास्त्रानुसारेण पर्यावरणस्य महत्त्वम् -            

   प्राचीनभारतीय – ज्यातिषशास्त्रे सूर्यचन्द्रादीनां ग्रहाणां पूज्यत्वेन स्वीकारः प्राचीनानां भारतीयानां पर्यावरणविषयकं चिन्तनं प्रस्तौति। शास्त्रेऽस्मिन्तेषां ग्रहाणां देवत्वमपि प्रतिष्ठापितम्। ज्योतिषशास्त्रे विशिष्ठ रूपेण ग्रहस्य विचारः क्रियते, एवं ग्रहा अनुसारेण पूर्णिमायां रात्रिसमये चन्द्रेणाकृष्णस्य  सन्तुलयन्ति जलमुत्थानं प्राप्नोति तथा च कृष्णपक्षे यथायथं चन्द्रकलानाम् ह्रास्यः भवति। शुक्लपक्षे च यथायथं बृद्धिर्भवति तथा तथा सम्पूर्णेऽपि पर्यावरणे कश्चन विशिष्टः प्रभावो दरीदृश्यते। शुद्धं वातावरणं स्वस्थं च जीवनं सर्वविधस्य विकासस्य साधकं भवतीति विचिन्त्यैव संस्कृतसुकविभिर्वातावरणशुद्धिर्बहुधा तेन हि तेषां मनीषिणां पर्यावरणं प्रति जागरूकत्वं स्पष्टं परिलक्ष्यते। मातृवत् पृथिव्यां श्रद्धाभावो वेदेषु बदुधा प्रकाशितः – 

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः”

एवम्विधेषु मन्त्रेषु भूमण्डलेन मानवजातेः स्नेहमयः सम्बन्धः प्रदर्शितः।

         इमे  कवयः पर्यावरणसंरक्षणविषयकज्ञानस्य धारां महर्षिभ्यः समासादितां स्वप्रज्ञाबलेन परिष्कृतवन्तः। अस्या परम्पराया निर्वाहः कालिदास – बाणभट्ट – भवभूति – प्रभृतिभिः परवर्तिभिः कवुभिरपि सम्यक्तया कृतः। इयमेव प्रकृतिः कालिदासस्य  काव्येषु संश्लिष्टसौन्दर्यमुपस्थापयति। कविकुलगुरुः कालिदासः प्रकृतेः सूक्ष्मातिसूक्ष्ममपि पक्षं स्वसाहित्ये प्रकाशयति स्म। ऋतुसंहारे मेघदूते तथा च अभिज्ञानशाकुन्तले प्रकृतिवर्णनं सौन्दर्यततत्त्वैः सञ्जातमिति कल्पितम्। 


  • सारांशः –

            सम्प्रति चतुर्ष्वपि वेदेषु महत्वपूर्ण वर्णनमस्ति। तस्य कारणमिदमस्ति यज्ञ एव स विधिर्येन प्राकृतिकं सन्तुलनं स्थापयितुं, वायुमण्डलशोधनम्, विविधरोगविनाशः, शारीरिकी, मानसिकी, चोन्नतिः रोगनिवारणेन दीर्घायुष्यप्राप्तिश्च सम्भवति। यक्षेन भूप्रदूषणं जलप्रदूषणं, वायुप्रदूषणं, ध्वनिप्रदूषणञ्च निरोधयितुं शक्यतें एतस्मादेव कारणाद्वेदेषु यज्ञ – यागादीनां वर्णनं महत्वपूर्णेन विधिना कृतमस्ति।

वस्तुतः प्रकृतावेका चक्रव्यवस्था प्रचलति, येन प्रत्येकं पदार्थः स्वकीयं मूलस्थनवाप्नोति। एमस्मिन्नेवाधारे ऋतुचक्रम्, वर्षचक्रम्, अहोरात्रचक्रम्, सौरचक्रम्, चान्द्रचक्रादिकञ्च विविध चक्रम् प्रवर्तितं भवति। इदं प्राकृतिकं चक्रमेव पारिभाषिकशब्दावल्ल्यां यज्ञ इत्युच्यते। सोऽयं विश्वस्मिन् प्रतिक्षणं प्रचलति। यज्ञोऽयमस्य सृष्टिचक्रस्य नाभिरुक्तः। तद्यथा यजुर्वेदः – “अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः” इति गोपथब्राह्मणे वर्णितमस्ति। यदृतुसन्धानवेव व्याधिर्जायते। तस्मद्व्याधिशान्तये यज्ञोऽपि ऋतुसंन्धानमेव क्रियते। यथा – “भैषज्ययज्ञा वा एते, ऋतुसंन्धिषु प्रयुज्यन्ते, ऋतुसंन्धिषु वै व्याधिर्जायते” इति। यज्ञेषु प्रयुक्तानि द्रव्याणि – यज्ञेषु समिधा, घृतम् हव्यसामग्रयः स्थालीपाकादयश्च प्रयुज्यन्ते। अत ऐतेषां पदार्थानामुपयोगेन प्रकृतेः संतुलनम्, पर्यावरणस्यशोधविविधाधिव्याधिविनाशः, सर्वविधशान्तिसम्भवति।

 मानवसभ्यतायाः संरक्षणाय विकासाय हि पर्यावरणशिक्षा अत्यन्तमावश्यकी अस्ति। यतोहि पर्यावरणविषयिणी जागरूकता यदि मानवस्य एव न स्यात् तर्हि यूनान- मिस्र – रोम – बेबीलोन – हडप्पादयः सभ्यता प्रत्येकं क्षेत्रविशेषस्य च संस्कृतिः धूलिधुसरिता भविष्यति अतः मानवरूपप्राणिनः तत्सभ्यतायाः तत्संस्कृते च पल्लवनं मानवस्य आद्यं कर्तव्यम्। पर्यावरणस्य अस्यामेव विस्तृतभावनायां भूमण्डलाश्रितानि सर्वाणि तत्त्वानि अन्तर्भवन्ति येन मानवजीवनं प्रभावितं भवति।

        यदि वयं पर्यावरणं प्रति उपेक्षां करिष्यामः तर्हि विश्वमानवः विनाशस्य शिखरे प्रत्यासन्नो भविष्यति। पर्यावरणशिक्षया मानवः प्रकृतिं प्रायोन्मुखं भवति। प्रकृत्याः अनावश्यकदोहनस्य प्रतिफलात् ज्ञास्यति। यच्च मानवसंस्कृत्यै अमङ्गलकारी अस्ति। पर्यावरणशिक्षया – एव पर्यावरणपरिवेशे औचित्यानुगुणम् आमूल –चूल – परिवर्तनं कृत्वा परमाणुयुद्धस्य विभीषिकया मुक्तः भविष्यति। इयं हि शिक्षा मानवं समुचितान् नैतिकाञ्च मूल्यान् प्रति सचेतनान् कृत्वा विश्वमानवसंस्कृतेः विकासाय योगदानं कर्तुं शक्नोति।              इत्थम् 

                                                                                       कपिलदेवः

                                                                                         विशिष्टाचार्यः












    उपयुक्तग्रन्थसूची

     Bibliography


  • द्विवेदी, कपिलदेव, (2010) संस्कृतनिवन्धशतकम्, वाराणसी, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी।

  • सक्सेना ए.बी, पर्यावरण  शिक्षा, देहली, आर्यबुक डिपो देहली।

  • शास्त्री, रामानारायण, (1968) संस्कृतवाङ्मये पर्यावरण विज्ञानम्, संस्कृतमञ्जरी, विज्ञान- विशेषाङ्क, नवदेहली। देहलीसंस्कृत – अकादमी, वर्ष 8 अङ्क।

  • घिल्डियालऋ, विनीत, (2007) वैदिक वाङ्मयेपर्यावरण चिन्तनम् संस्कृतमञ्जरी, शोधपत्रिका, नवदेहली देहलीसंस्कृत- अकादमी। वर्ष 6 अङ्क।

  • पाठकः, कमलाकान्त, (2010) अग्निहोत्रेण पर्यावरण शोधनम्ष संस्कृतमंञ्जरी, शोधपत्रिका, नवदेहली, देहलीसंस्कृत – अकादमी, वर्ष 9 अङ्क 2

  • डा. मण्डन मिश्र, संस्कृत संस्कृति मञ्जरी, नाग प्रकाशन, नवदेहली।

मेघानाद घटा घटा..।

मेघा नाद घटा घटा घट घटा घाटा घटा दुर्घटा,

मण्डूकस्य बको बको बक बको बाको बको बूबको ।

विद्युज्ज्योति चकी मकी चक मकी चाकी मकी दृश्यते,

इत्थं नन्दकिशोरगोपवनितावाचस्पति: पातु माम् ।।

अर्थात-

मेघ यानी बादल ज़ोर ज़ोर से गरज रहें हैं, बरस रहे हैं मण्डुकस्य यानी मेंडक बाहर आ कर इस बारिश में "बक बक" सी अपनी मधुर ध्वनी चारों ओर फैला रहे हैं बिद्युत ज्योति यानी बिजलियाँ अपनी चमक धमक से इस द्रश्य को सुशोभित कर रही हैं और एसे ही भव्य वातावरण में बाल गोपाल क्रष्ण अपनी बचपन की लीलाएँ कर रहे हैं।

बुधवार, 26 जून 2019

संस्कृत श्लोक जन्मदिन के लिए

दीर्घायुर्भव जीव वत्सरशतं नश्यन्तु सर्वापद:
स्वास्थ्यं सम्भज मुंच चंचलधियं लक्ष्यैकनिष्ठो भव ।।
किं ब्रूम: भृगुगौतमात्रिकपिलव्यासादिभिर्भाषितं
यद्रामस्य पुराभिषेक समये तच्चास्तु ते मंगलम् ।।1||

                  डा. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर।।

सुदिनम सुदिनम जन्मदिनं तव | 

भवतु मंगलं जन्मदिनम् || 

चिरंजीव कुरु कीर्तिवर्धनम्| 

चिरंजीव कुरु पुण्यवर्धनम् ||

विजयी भवतु सर्वत्र सर्वदा | 

जगति भवतु तव सुयशगानम्|| 

              हम उस परमेश्वर से ये प्रार्थना करते हैं कि ये दिन आपके जीवन में बार-बार आये और आपको उतम स्वास्थ्य, दीर्घ आयु तथा आने वाला प्रत्येक दिन, आपके जीवन में अनेकानेक सफलताएँ एवं अपार खुशियाँ लेकर आये !

संस्कृत अनुवाद

ओ३म्

संस्कृत वाक्याभ्यासः 
~~~~~~~~~~~~~~

ह्यः  मध्याह्ने एकं भोजन-समारोहं गतवान् ।
= कल दोपहर एक भोजन समारोह में गया था ।

तत्र एकः  सज्जनः अवदत्
= वहाँ एक सज्जन बोला

अहं मधुमेह रोगेण पीड़ितः अस्मि।
= मैं मधुमेह रोग से पीड़ित हूँ

अतः रसगोलकं न खादामि ।
= इसलिए रसगुल्ला नहीं खाता हूँ ।

अपरः जनः अवदत् ।
= दूसरा व्यक्ति बोला

मम हृद्रोगः अस्ति
= मुझे हृदय रोग है

अतः दुग्धछिन्नकं न खादामि ।
= इसलिये पनीर नहीं खाता हूँ ।

एका भगिनी उक्तवती
= एक बहन बोली

अहं बहु स्थूला अस्मि ।
= मैं बहुत मोटी हूँ

अतः तैलीयं ( तैलयुक्तम् ) किमपि न खादामि ।
= इसलिये तेल वाला कुछ नहीं खाती हूँ ।

एकः वृद्धः अवदत् ।
= एक वृद्ध बोला

अहं तु फलानि एव खादामि ।
= मैं तो फल ही खाता हूँ ।

बालकः अवदत् ।
= बालक बोला

अहं तु सर्वं खादामि ।
= मैं तो सब कुछ खाता हूँ ।

ओ३म्

बालकाय आम्रफलं रोचते
= बच्चे को आम पसंद है।

बालिकायै आम्रफलं रोचते
= बच्चे को आम पसंद है।

बालकाः स्वादेन अधिकं खादन्ति।
= बच्चे स्वाद से अधिक खा लेते हैं

आम्रफलं अधिकं खादन्ति तर्हि पित्तं वर्धते ।
= आम अधिक खाते हैं तो पित्त बढ़ता है।

बालकस्य मुखे पिटकानि जातानि।
= बच्चे के मुँह पर फुंसियाँ हो गई हैं।

सः बालकः रोदिति।
= वह बच्चा रो रहा है।

अधुना माता बालकाय आम्रफलं न ददाति।
= अब माँ बच्चे को आम नहीं देती है।

माता स्वयमपि आम्रफलं न खादति।
= माँ स्वयं भी आम नहीं खाती है।

अधुना सा तरंबूजम् आनयति।
= अब वो तरबूज लाती है।

बालकः तरंबूजं खादति।
= बालक तरबूज खाता है।

माता अपि खादति।
= माँ भी खाती है।

मंगलवार, 25 जून 2019

कटु सत्य

कटु सत्य

ईसाईयों को इंग्लिश आती है वो बाइबिल पढ लेते है,
उधर मुस्लिम को उर्दू आती है वो कुरान शरीफ़ पढ लेते हैं,

सिखों को गुरबानी का पता है वो श्री गुरू ग्रन्थ साहिब पढ लेते है ।

हिन्दूओ को संस्कृत नही आती वो ना वेद पढ पाते है न उपनिषद ।

इस से बडा दुर्भाग्य क्या होगा हमारा🔔🌿

संस्कृत ही विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है इसे अवश्य सीखें

प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ सुंदर मंत्र। संग्रह

  🔹 प्रात: कर-दर्शनम्🔹

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥

         🔸पृथ्वी क्षमा प्रार्थना🔸

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥

🔺त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण🔺

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥

              ♥ स्नान मन्त्र ♥

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥

           🌞 सूर्यनमस्कार🌞

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च
आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्
सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

ॐ मित्राय नम:
ॐ रवये नम:
ॐ सूर्याय नम:
ॐ भानवे नम:
ॐ खगाय नम:
ॐ पूष्णे नम:
ॐ हिरण्यगर्भाय नम:
ॐ मरीचये नम:
ॐ आदित्याय नम:
ॐ सवित्रे नम:
ॐ अर्काय नम:
ॐ भास्कराय नम:
ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

                🔥दीप दर्शन🔥

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥

            🌷 गणपति स्तोत्र 🌷

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।
द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥
विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।
द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥
विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय।
लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय।
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥

        ⚡आदिशक्ति वंदना ⚡

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

           🔴 शिव स्तुति 🔴

कर्पूर गौरम करुणावतारं,
संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
सदा वसंतं हृदयार विन्दे,
भवं भवानी सहितं नमामि॥

              🔵 विष्णु स्तुति 🔵

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

            ⚫ श्री कृष्ण स्तुति ⚫

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥
सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्‌।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्‌॥

            ⚪ श्रीराम वंदना ⚪

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥

               ♦श्रीरामाष्टक♦

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥
हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥

    🔱 एक श्लोकी रामायण 🔱

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥

           🍁सरस्वती वंदना🍁

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा माम पातु सरस्वती भगवती
निःशेषजाड्याऽपहा॥

            🔔हनुमान वंदना🔔

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्‌।
दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्‌।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥

         🌹 स्वस्ति-वाचन 🌹

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

            ❄ शांति पाठ ❄

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥

  ।।ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

🌅🌿🍁🌻🔔🚩
बहुत ही सुंदर संग्रह
इसे हर हिन्दू को अपने 'saver' में डाले या प्रिंट आउट ले । ऐसा संग्रह सरलता से नही मिलता ।
एक प्रति परिवार के बच्चों को भी दे ।

🙏🙏🙏