द्वितीयः पाठः स्वर्णकाकः
प्रसंग:- प्रस्तुत पाठ श्रीपद्मशास्त्री द्वारा रचित 'विश्वकथाशतकम्' नामक कथा संग्रह से लिया गया है। इसमें विविध देशों की सौ लोक कथाओं का वर्णन किया गया है। यह कथा वर्मा (म्यांमार) देश की श्रेष्ठ लोक कथा है। इस कथा में लोभ के दुष्परिणाम और त्याग के सुपरिणाम का वर्णन एक सुनहरे पंखों वाले कौवे के माध्यम से किया गया है।
कहानी- हिंदी अनुवाद
काफी समय पहले किसी गाँव में एक गरीब बुढ़िया स्त्री रहती थी। उसकी एक विनम्र और सुन्दर पुत्री थी। एक बार माता ने थाली में चावल रखकर पुत्री को आदेश दिया "धूप में चावलों की पक्षियों से रक्षा करना।" कुछ समय बाद एक विचित्र कौआ उड़कर उसके पास आया।
इस प्रकार का सोने के पंखों वाला और चाँदी की चोंच वाला सुनहरा कौआ उसके द्वारा पहले नहीं देखा गया। उसको चावल खाते हुए और हँसते हुए देखकर लड़की ने रोना शुरू कर दिया। उसको रोकती हुई वह प्रार्थना करती है- 'चावल मत खाओ। मेरी माता अत्यन्त गरीब है।' सुनहरे पंखों वाला कौआ बोला, 'दुःख मत करो। सूर्योदय से पहले गाँव के बाहर पीपल के वृक्ष के नीचे तुम आ जाना। मैं तुम्हें चावलों का मूल्य दे दूँगा। खुशी में लड़की को नींद भी नहीं आई।
सूर्योदय से पहले ही वह वहाँ पहुँच गई। वृक्ष के ऊपर देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई, क्योंकि वहाँ सोने का महल बना हुआ है। जब कौआ सोकर उठा तब उसने सोने की खिड़की में से कहा, 'हे बालिका ! तुम आ गई, बैठो, मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी उतारता हूँ, तो कहो सोने की उतारूँ, चाँदी की अथवा ताँबे की सीढ़ी उतारूँ? कन्या बोली, 'मैं गरीब माता की पुत्री हूँ। ताँबे की सीढ़ी से ही आ जाऊँगी। परन्तु सोने की सीढ़ी से वह सोने के महल में चढ़ी।
बहुत देर तक महल में अनेक प्रकार की वस्तुएँ सजी हुई देखकर वह आश्चर्यचकित हुई। उस बालिका को थकी हुई देखकर कौआ बोला- 'पहले नाश्ता कर लीजिए- बोलो, तुम सोने की थाली में भोजन करोगी अथवा चाँदी की थाली या ताँबे की थाली में ?' लड़की बोली- ताँबे की थाली में ही मैं- 'गरीब भोजन करूँगी।' तब वह आश्चर्यचकित हुई जब सुनहरा कौए द्वारा सोने की थाली में भोजन परोसा गया। ऐसा स्वादिष्ट भोजन बालिका ने आज तक नहीं खाया था। कौआ बोला- है बालिका! मैं चाहता हूँ कि तुम हमेशा यहीं रहो परन्तु तुम्हारी माता तो अकेली हो जाएगी। इसलिए 'तुम जल्दी ही अपने घर जाओ।'
ऐसा कहकर कौआ कमरे के अन्दर से तीन पेटियाँ निकालकर उस बालिका से फिर बोला- 'हे बालिके। अपनी इच्छानुसार एक पेटी ले लो।' छोटी पेटी लेकर बालिका ने कहा यह ही मेरे चावलों का मूल्य है
घर आकर उसने पेटी को खोला, उस पेटी में बहुमूल्य हीरे देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई और उस दिन से वह बहुत धनवान हो गई ।
उस ही गाँव में एक दूसरी लोभी वृद्धा रहती थी। उसकी भी एक पुत्री थी। ईर्ष्या से वह उस सुनहरे कौए का रहस्य जान गई। धूप में चावल डालकर उसने भी अपनी पुत्री को रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। वैसे ही सोने के पंखों वाले कौए ने चावल खाकर उसे भी वहीं बुलाया। सुबह वहाँ जाकर वह कौए का तिरस्कार करती हुई बोली- 'हे नीच कौए ! मैं आ गई हूँ, मुझे चावलों का मूल्य दो ।' कौआ बोला- 'मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी उतारता हूँ। तो कहिए सोने की सीढ़ी, चाँदी की अथवा ताँबे की सीढ़ी लाऊँ।' बालिका ने घमण्डपूर्वक कहा- 'सोने की सीढ़ी से मैं आती हूँ। परन्तु सुनहरा कौआ उसके लिए ताँबे की सीढ़ी ही लाया। सुनहरे कौए ने उसे भोजन भी ताँबे के बर्तन में ही करवाया।
वापिस लौटने के समय सुनहरे कौए ने कमरे के अन्दर से तीन पेटियाँ लाकर उसके सामने रखी। लालची बालिका ने सबसे बड़ी पेटी ली। घर आकर उत्सुकतापूर्वक उसने जब पेटी खोली तो उसमें भयानक काला साँप देखा। लोभी बालिका को लालच का फल प्राप्त हुआ । उसके बाद से उसने लालच करना छोड़ दिया।
-: अभ्यासकार्यम् :-
1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) माता काम् आदिशत् ?
उत्तर- पुत्रीम्
(ख) स्वर्णकाकः कान् अखादत् ?
उत्तर- तण्डुलान्
(ग) प्रासादः कीदृशः वर्तते ?
उत्तर- स्वर्णमय:
(घ) गृहमागत्य तया का समुद्घाटिता ?
उत्तर- मंजूषा
(ङ) लोभाविष्टा बालिका कीदृशीं मञ्जूषां नयति ?
उत्तर- बृहत्तमाम्
(अ) अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-
(क) निर्धनायाः वृद्धायाः दुहिता कीदृशी आसीत्?
उत्तर- निर्धनायाः वृद्धायाः दुहिता विनम्रा मनोहरा च आसीत् ।
(ख) बालिकया पूर्वं कीदृशः काकः न दृष्टः आसीत्?
उत्तर- बालिकया पूर्वम् स्वर्णपक्षो रजतचंचुः स्वर्णकाकः न दृष्टः आसीत् ।
(ग) निर्धनाया दुहिता मञ्जूषायां कानि अपश्यत् ?
उत्तर- निर्धनायाः दुहिता मंजूषायां महार्हाणि हीरकाणि अपश्यत् ।
(घ) बालिका किं दृष्ट्वा आश्चर्यचकिता जाता?
उत्तर- बालिका वृक्षस्योपरि स्वर्णमयः प्रासादः दृष्ट्वा आश्चर्यचकिता जाता ।
(ङ) गर्विता बालिका कीदृशं सोपानम् अयाचत कीदृशं च प्राप्नोत् ।
उत्तर- गर्विता बालिका स्वर्णमयं सोपानम् अयाचत् परं सा ताम्रसोपानमेव प्राप्नोत् ।
2. ( क ) अधोलिखितानां शब्दानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत-
(i) पश्चात् पूर्वम्
(ii) हसितुम् रोदितुम्
(iii) अधः उपरि
(iv) श्वेत: कृष्णः
(v) सूर्यास्त: सूर्योदय:
(vi) सुप्तः प्रबुद्धः
(ख) सन्धिं कुरुत-
(i) नि + अवसत् = न्यवसत्
(ii) सूर्य + उदयः = सूर्योदय:
(iii) वृक्षस्य + उपरि = वृक्षस्योपरि
(iv) हि + अकारयत् = ह्यकारयत्
(v) च + एकाकिनी = चैकाकिनी
(vi) इति + उक्त्वा = इत्युक्त्वा
(vii) प्रति + अवदत् = प्रत्यवदत्
(viii) प्र + उक्तम् = प्रोक्तम्
(ix) अत्र + एव = अत्रैव
(x) तत्र + उपस्थिता = तत्रोपस्थिता
(xi) यथा + इच्छम् = यथेच्छम्
3. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(क) ग्रामे निर्धना स्त्री अवसत्।
उत्तर- ग्रामे का अवसत् ?
(ख) स्वर्णकाकं निवारयन्ती बालिका प्रार्थयत् ।
उत्तर- कं निवारयन्ती बालिका प्रार्थयत् ?
(ग) सूर्योदयात् पूर्वमेव बालिका तत्रोपस्थिता ।
उत्तर- कस्मात् पूर्वमेव बालिका तत्रोपस्थिता ?
(घ) बालिका निर्धनमातुः दुहिता आसीत्।
उत्तर- बालिका कस्याः दुहिता आसीत् ?
(ङ) लुब्धा वृद्धा स्वर्णकाकस्य रहस्यमभिज्ञातवती ।
उत्तर- लुब्धा वृद्धा कस्य रहस्यमभिज्ञातवती ?
4. प्रकृति-प्रत्यय-संयोगं कुरुत (पाठात् चित्वा वा लिखत ) -
(क) वि + लोकृ + ल्यप् = विलोक्य
(ख) निक्षिप् + ल्यप् = निक्षिप्य
(ग) आ + गम् + ल्यप् = आगम्य
(घ) दृश् + क्त्वा = दृष्ट्वा
(ङ) शी+ क्त्वा = शयित्वा
(च) लघु + तमप् = लघुतमः
5. प्रकृतिप्रत्यय-विभागं कुरुत-
(क) रोदितुम् = रूद् + तुमुन्
(ख) दृष्ट्वा = दृश् + क्त्वा
(ग) विलोक्य = वि + लोकृ + ल्यप्
(घ) निक्षिप्य = नि + क्षिप् + ल्यप्
(ङ) आगत्य = आ + गम् + ल्यप्
(च) शयित्वा = शी + क्त्वा
(छ) लघुतमम् = लघु + तमप्
6. अधोलिखितानि कथनानि कः/का, कं/कां च कथयति-
कथनानि कं/काम्
(क) पूर्व प्रातराश: क्रियाताम् बालिकाम्
(ख) सूर्यातपे तण्डुलान् खगेभ्यो रक्ष। बालिकाम्
(ग) तण्डुलान् मा भक्षय। स्वर्णकाकम्
(घ) अहं तुभ्यं तण्डुलमूल्यं दास्यामि। स्वर्णकाक:
(ङ) भो नीचकाक! अहमागता, मह्यं तण्डुल लुब्धाबालिका स्वर्णकाकम्
7. उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकगतेषु पदेषु पञ्चमीविभक्तेः प्रयोगं कृत्वा रिक्तस्थानानि पूरयत-
यथा मूषकः बिलाद् बहिः निर्गच्छति (बिल)
(क) जनः ग्रामात् बहिः आगच्छति। (ग्राम)
(ख) नद्यः पर्वतात् निस्सरन्ति । (पर्वत)
(ग) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति । (वृक्ष)
(घ) बालकः सिंहात् विभेति ? (सिंह)
(ङ) ईश्वरः क्लेशात् त्रायते । (क्लेश)
(च) प्रभुः भक्तं पापात् निवारयति । (पाप)