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मंगलवार, 21 नवंबर 2023

पठामि संस्कृतं नित्यम्

पठामि संस्कृतं नित्यं
वदामि संस्कृतं सदा ।
ध्यायामि संस्कृतं सम्यक्
वन्दे संस्कृतमातरं ॥

संस्कृतस्य प्रसाराय 
नैजं सर्वं ददाम्यहं।
संस्कृतस्य सदा भक्तो
वन्दे संस्कृतमातरं ।।

संस्कृतस्य कृते जीवन्
संस्कृतस्य कृते यजन् ।
आत्मानं आहुतं मन्ये
वन्दे संस्कृतमातरं ॥

मंगलवार, 5 सितंबर 2023

बहुत बड़ा है यह संसार

सबसे पहले मेरे घर का अंडे जैसा था आकार,

तब मैं यही समझती थी बस इतना सा ही है संसार!

फिर मेरा घर बना घोंसला सूखे तिनकों से तैयार,

तब मैं यही समझती थी बस इतना सा ही है संसार!

फिर मैं निकल पड़ी शाखों पर हरी भरी थी जो सुकुमार,

तब मैं यही समझती थी बस इतना सा ही है संसार!

लेकिन जब मैं आसमान में उडी दूर तक पंख पसार,

तभी समझ में मेरी आया बहुत बड़ा है यह संसार!

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सोमवार, 4 सितंबर 2023

थाल सजाकर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले?

 
थाल सजाकर किसे पूजने 
चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का
पीताम्बर तन पर डाले?

कहाँ चले ले चन्दन अक्षत
बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती?
कहाँ चली जूही माला?

ले मुंजी उपवीत मेखला
कहाँ चले तुम दीवाने?
जल से भरा कमंडलु लेकर
किसे चले तुम नहलाने?

मौलसिरी का यह गजरा
किसके गज से पावन होगा?
रोम कंटकित प्रेम - भरी
इन आँखों में सावन होगा?

चले झूमते मस्ती से तुम,
क्या अपना पथ आए भूल?
कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा,
कहाँ चढ़ेगा माला - फूल?

इधर प्रयाग न गंगासागर,
इधर न रामेश्वर, काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा?
कहाँ चले तुम संन्यासी?

क्षण भर थमकर मुझे बता दो,
तुम्हें कहाँ को जाना है?
मन्त्र फूँकनेवाला जग पर
अजब तुम्हारा बाना है॥

नंगे पैर चल पड़े पागल,
काँटों की परवाह नहीं।
कितनी दूर अभी जाना है?
इधर विपिन है, राह नहीं॥

मुझे न जाना गंगासागर,
मुझे न रामेश्वर, काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को
मेरी आँखें प्यासी॥

अपने अचल स्वतंत्र दुर्ग पर
सुनकर वैरी की बोली
निकल पड़ी लेकर तलवारें
जहाँ जवानों की टोली,

जहाँ आन पर माँ - बहनों की
जला जला पावन होली
वीर - मंडली गर्वित स्वर से
जय माँ की जय जय बोली,

सुंदरियों ने जहाँ देश - हित
जौहर - व्रत करना सीखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ
बच्चों ने भी मरना सीखा,

वहीं जा रहा पूजा करने,
लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा,
वहीं चढ़ेगा माला - फूल॥

वहीं मिलेगी शान्ति, वहीं पर
स्वस्थ हमारा मन होगा।
प्रतिमा की पूजा होगी,
तलवारों का दर्शन होगा॥

वहाँ पद्मिनी जौहर-व्रत कर
चढ़ी चिता की ज्वाला पर,
क्षण भर वहीं समाधि लगेगी,
बैठ इसी मृगछाला पर॥

नहीं रही, पर चिता - भस्म तो
होगा ही उस रानी का।
पड़ा कहीं न कहीं होगा ही,
चरण - चिह्न महरानी का॥

उस पर ही ये पूजा के सामान
सभी अर्पण होंगे।
चिता - भस्म - कण ही रानी के, 
दर्शन - हित दर्पण होंगे॥

आतुर पथिक चरण छू छूकर
वीर - पुजारी से बोला;
और बैठने को तरु - नीचे,
कम्बल का आसन खोला॥

देरी तो होगी, पर प्रभुवर,
मैं न तुम्हें जाने दूँगा।
सती - कथा - रस पान करूँगा,
और मन्त्र गुरु से लूँगा॥

कहो रतन की पूत कहानी,
रानी का आख्यान कहो।
कहो सकल जौहर की गाथा,
जन जन का बलिदान कहो॥

कितनी रूपवती रानी थी?
पति में कितनी रमी हुई?
अनुष्ठान जौहर का कैसे?
संगर में क्या कमी हुई?

अरि के अत्याचारों की
तुम सँभल सँभलकर कथा कहो।
कैसे जली किले पर होली?
वीर सती की व्यथा कहो॥

                               .....श्यामनारायण पाण्डेय


पर्वत कहता शीश उठाकर, तुम भी ऊँचे बन जाओ।

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ-उठ गिर-गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी-मीठी मृदुल उमंग! ।

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार! ।
                – सोहनलाल द्विवेदी (भारतीय कवि)

गुरुस्तोत्र

।।गुरुस्तोत्र।।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ २॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३॥

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किञ्चित्सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ४॥

चिन्मयं व्यापि यत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ५॥

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजः ।
वेदान्ताम्बुजसूर्यो यः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ६॥

चैतन्यश्शाश्वतश्शान्तः व्योमातीतो निरञ्जनः ।
बिन्दुनादकलातीतः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ७॥

ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ८॥

अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ९॥

शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापनं सारसम्पदः ।
गुरोः पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १०॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ११॥

मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १२॥

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३॥

त्वमेव माता च पिता त्वमेव । त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ १४॥

          ॥ इति श्रीगुरुस्तोत्रम् ॥

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना l
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ll1ll

जो परमेश्वरी भगवती शारदा कुंदपुष्प, चंद्र और बर्फ के हार के समान श्वेत है और श्वेत वस्त्रों से सुशोभित हो रही है जिसके हाथों में वीणा का श्रेष्ठ दंड सुशोभित है. जो श्वेत कमल पर विराजमान है जिसकी स्तुति सदा ब्रह्मा विष्णु और महेश द्वारा की जाती है. वह परमेश्वरी समस्त दुर्मति को दूर करने वाली माँ सरस्वती मेरी रक्षा करेंl

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीम्, 
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थिताम्,
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ।।2।।

श्वेत रंग वाली ब्रह्मा के विचार के सार में लगी हुई, आदि शक्ति समस्त जगत में व्याप्त रहने वाली हाथों में वीणा और पुस्तक धारण करने वाली अभयदान को देने वाली तथा मूर्खता के अंधकार को दूर करने वाली हाथों में स्फटिक मणियों की माला धारण करने वाली श्वेत कमलासन पर विराजमान बुद्धि को देने वाली उस परम तेजस्वी मां सरस्वती के चरणों में मैं वंदना करता हूं।


https://youtu.be/DySzqHwNCxU?si=w6oYLj7VnhqPBttK

मंगलवार, 15 अगस्त 2023

चटका, चटका, रे चटका

चटका चटका
चटका, चटका, रे चटका
चिँव्, चिँव् कूजसि त्वं विहगा ||

नीडे निवससि सुखेन डयसे
खादसि फलानि मधुराणि ।
विहरसि विमले विपुले गगने
नास्ति जनः खलु वारयिता ॥

चटका, चटका, रे चटका
चिँव्, चिँव् कूजसि त्वं विहगा ||

मातापिरौ इह मम न स्तः
एकाकी खलु खिन्नोऽहम् ।
एहि समीपं चिँव् चिँव् मित्र
ददामि तुभ्यं बहुधान्यम् ॥

चटका, चटका, रे चटका
चिँव्, चिँव् कूजसि त्वं विहगा ||

चणकं स्वीकुरु पिब रे नीरं
त्वं पुनरपि रट चिँव् चिँव् चिँव् ।
तोषय मां कुरु मधुरालापं
पाठय मामपि तव भाषाम् ॥

चटका, चटका, रे चटका
चिँव्, चिँव् कूजसि त्वं विहगा ||


रविवार, 6 अगस्त 2023

सरससुबोधा विश्वमनोज्ञा

सरससुबोधा विश्वमनोज्ञा

ललिता हृद्या रमणीया।

अमृतवाणी संस्कृतभाषा

       नैव क्लिष्टा न च कठिना॥    ॥नैव क्लिष्टा॥

                    कविकोकिल-वाल्मीकि-विरचिता

                    रामायणरमणीय कथा।    

                    अतीव-सरला मधुरमंजुला

                   नैव क्लिष्टा न च कठिना॥  ॥सुरस.....॥

व्यासविरचिता गणेशलिखिता

महाभारते पुण्यकथा।

कौरव - पाण्डव -संगरमथिता

 नैव क्लिष्टा न च कठिना॥          ॥सुरस.....॥

                    कुरूक्षेत्र-समरांगण - गीता

                    विश्ववन्दिता भगवद्‌गीता

                    अमृतमधुरा कर्मदीपिका               

                    नैव क्लिष्टा न च कठिना॥  ॥सुरस.....॥

कविकुलगुरू - नव - रसोन्मेषजा

ऋतु - रघु - कुमार - कविता।

विक्रम - शाकुन्तल - मालविका

नैव क्लिष्टा न च कठिना॥        ॥सुरस.....॥

जयतु संस्कृतम्।।                  जयतु भारतम्।।

https://youtu.be/VuuoR3m1Lm4

सोने का कौआ ( स्वर्णकाक: )


द्वितीयः पाठः स्वर्णकाकः

       प्रसंग:-    प्रस्तुत पाठ श्रीपद्मशास्त्री द्वारा रचित 'विश्वकथाशतकम्' नामक कथा संग्रह से लिया गया है। इसमें विविध देशों की सौ लोक कथाओं का वर्णन किया गया है। यह कथा वर्मा (म्यांमार) देश की श्रेष्ठ लोक कथा है। इस कथा में लोभ के दुष्परिणाम और त्याग के सुपरिणाम का वर्णन एक सुनहरे पंखों वाले कौवे के माध्यम से किया गया है।

                    कहानी- हिंदी अनुवाद 

     काफी समय पहले किसी गाँव में एक गरीब बुढ़िया स्त्री रहती थी। उसकी एक विनम्र और सुन्दर पुत्री थी। एक बार माता ने थाली में चावल रखकर पुत्री को आदेश दिया "धूप में चावलों की पक्षियों से रक्षा करना।" कुछ समय बाद एक विचित्र कौआ उड़कर उसके पास आया।
    इस प्रकार का सोने के पंखों वाला और चाँदी की चोंच वाला सुनहरा कौआ उसके द्वारा पहले नहीं देखा गया। उसको चावल खाते हुए और हँसते हुए देखकर लड़की ने रोना शुरू कर दिया। उसको रोकती हुई वह प्रार्थना करती है- 'चावल मत खाओ। मेरी माता अत्यन्त गरीब है।' सुनहरे पंखों वाला कौआ बोला, 'दुःख मत करो। सूर्योदय से पहले गाँव के बाहर पीपल के वृक्ष के नीचे तुम आ जाना। मैं तुम्हें चावलों का मूल्य दे दूँगा। खुशी में लड़की को नींद भी नहीं आई।
        सूर्योदय से पहले ही वह वहाँ पहुँच गई। वृक्ष के ऊपर देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई, क्योंकि वहाँ सोने का महल बना हुआ है। जब कौआ सोकर उठा तब उसने सोने की खिड़की में से कहा, 'हे बालिका ! तुम आ गई, बैठो, मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी उतारता हूँ, तो कहो सोने की उतारूँ, चाँदी की अथवा ताँबे की सीढ़ी उतारूँ? कन्या बोली, 'मैं गरीब माता की पुत्री हूँ। ताँबे की सीढ़ी से ही आ जाऊँगी। परन्तु सोने की सीढ़ी से वह सोने के महल में चढ़ी।
         बहुत देर तक महल में अनेक प्रकार की वस्तुएँ सजी हुई देखकर वह आश्चर्यचकित हुई। उस बालिका को थकी हुई देखकर कौआ बोला- 'पहले नाश्ता कर लीजिए- बोलो, तुम सोने की थाली में भोजन करोगी अथवा चाँदी की थाली या ताँबे की थाली में ?' लड़की बोली- ताँबे की थाली में ही मैं- 'गरीब भोजन करूँगी।' तब वह आश्चर्यचकित हुई जब सुनहरा कौए द्वारा सोने की थाली में भोजन परोसा गया। ऐसा स्वादिष्ट भोजन बालिका ने आज तक नहीं खाया था। कौआ बोला- है बालिका! मैं चाहता हूँ कि तुम हमेशा यहीं रहो परन्तु तुम्हारी माता तो अकेली हो जाएगी। इसलिए 'तुम जल्दी ही अपने घर जाओ।'
      ऐसा कहकर कौआ कमरे के अन्दर से तीन पेटियाँ निकालकर उस बालिका से फिर बोला- 'हे बालिके। अपनी इच्छानुसार एक पेटी ले लो।' छोटी पेटी लेकर बालिका ने कहा यह ही मेरे चावलों का मूल्य है
        घर आकर उसने पेटी को खोला, उस पेटी में बहुमूल्य हीरे देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई और उस दिन से वह बहुत धनवान हो गई । 
        उस ही गाँव में एक दूसरी लोभी वृद्धा रहती थी। उसकी भी एक पुत्री थी। ईर्ष्या से वह उस सुनहरे कौए का रहस्य जान गई। धूप में चावल डालकर उसने भी अपनी पुत्री को रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। वैसे ही सोने के पंखों वाले कौए ने चावल खाकर उसे भी वहीं बुलाया। सुबह वहाँ जाकर वह कौए का तिरस्कार करती हुई बोली- 'हे नीच कौए ! मैं आ गई हूँ, मुझे चावलों का मूल्य दो ।' कौआ बोला- 'मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी उतारता हूँ। तो कहिए सोने की सीढ़ी, चाँदी की अथवा ताँबे की सीढ़ी लाऊँ।' बालिका ने घमण्डपूर्वक कहा- 'सोने की सीढ़ी से मैं आती हूँ। परन्तु सुनहरा कौआ उसके लिए ताँबे की सीढ़ी ही लाया। सुनहरे कौए ने उसे भोजन भी ताँबे के बर्तन में ही करवाया।
        वापिस लौटने के समय सुनहरे कौए ने कमरे के अन्दर से तीन पेटियाँ लाकर उसके सामने रखी। लालची बालिका ने सबसे बड़ी पेटी ली। घर आकर उत्सुकतापूर्वक उसने जब पेटी खोली तो उसमें भयानक काला साँप देखा। लोभी बालिका को लालच का फल प्राप्त हुआ । उसके बाद से उसने लालच करना छोड़ दिया।

                       -: अभ्यासकार्यम् :-


1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) माता काम् आदिशत् ?
      उत्तर- पुत्रीम्
(ख) स्वर्णकाकः कान् अखादत् ?
       उत्तर-  तण्डुलान्
(ग) प्रासादः कीदृशः वर्तते ?
     उत्तर-  स्वर्णमय:
(घ) गृहमागत्य तया का समुद्घाटिता ?
        उत्तर-  मंजूषा
(ङ) लोभाविष्टा बालिका कीदृशीं मञ्जूषां नयति ?
       उत्तर-  बृहत्तमाम्

(अ) अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत- 
(क) निर्धनायाः वृद्धायाः दुहिता कीदृशी आसीत्?
उत्तर- निर्धनायाः वृद्धायाः दुहिता विनम्रा मनोहरा च आसीत् ।

(ख) बालिकया पूर्वं कीदृशः काकः न दृष्टः आसीत्?
उत्तर- बालिकया पूर्वम् स्वर्णपक्षो रजतचंचुः स्वर्णकाकः न दृष्टः आसीत् ।

(ग) निर्धनाया दुहिता मञ्जूषायां कानि अपश्यत् ?
उत्तर- निर्धनायाः दुहिता मंजूषायां महार्हाणि हीरकाणि अपश्यत् ।

(घ) बालिका किं दृष्ट्वा आश्चर्यचकिता जाता? 
उत्तर- बालिका वृक्षस्योपरि स्वर्णमयः प्रासादः दृष्ट्वा आश्चर्यचकिता जाता ।

(ङ) गर्विता बालिका कीदृशं सोपानम् अयाचत कीदृशं च प्राप्नोत् ।
उत्तर- गर्विता बालिका स्वर्णमयं सोपानम् अयाचत् परं सा ताम्रसोपानमेव प्राप्नोत् ।

2. ( क ) अधोलिखितानां शब्दानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत-

(i) पश्चात्               पूर्वम्
(ii) हसितुम्            रोदितुम्
(iii) अधः               उपरि
(iv) श्वेत:               कृष्णः
(v) सूर्यास्त:           सूर्योदय:
(vi) सुप्तः             प्रबुद्धः

(ख) सन्धिं कुरुत-

(i) नि + अवसत्     =   न्यवसत्
(ii) सूर्य + उदयः     =   सूर्योदय:
(iii) वृक्षस्य + उपरि =  वृक्षस्योपरि
(iv) हि + अकारयत् = ह्यकारयत्
 (v) च + एकाकिनी = चैकाकिनी
(vi) इति + उक्त्वा   =  इत्युक्त्वा
(vii) प्रति + अवदत् =  प्रत्यवदत्
(viii) प्र + उक्तम्     =  प्रोक्तम्
(ix) अत्र + एव       =   अत्रैव
(x) तत्र + उपस्थिता =   तत्रोपस्थिता 
(xi) यथा + इच्छम्   = यथेच्छम्


3. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-

(क) ग्रामे निर्धना स्त्री अवसत्।
उत्तर-  ग्रामे का अवसत् ?

(ख) स्वर्णकाकं निवारयन्ती बालिका प्रार्थयत् । 
उत्तर- कं निवारयन्ती बालिका प्रार्थयत् ?

(ग) सूर्योदयात् पूर्वमेव बालिका तत्रोपस्थिता ।
उत्तर- कस्मात् पूर्वमेव बालिका तत्रोपस्थिता ?

(घ) बालिका निर्धनमातुः दुहिता आसीत्। 
उत्तर- बालिका कस्याः दुहिता आसीत् ?

(ङ) लुब्धा वृद्धा स्वर्णकाकस्य रहस्यमभिज्ञातवती । 
उत्तर- लुब्धा वृद्धा कस्य रहस्यमभिज्ञातवती ?

4. प्रकृति-प्रत्यय-संयोगं कुरुत (पाठात् चित्वा वा लिखत ) -

(क) वि + लोकृ + ल्यप्      =     विलोक्य
(ख) निक्षिप् + ल्यप्           =     निक्षिप्य
(ग) आ + गम् + ल्यप्        =     आगम्य
(घ) दृश् + क्त्वा                =      दृष्ट्वा
(ङ) शी+ क्त्वा                 =     शयित्वा
(च) लघु + तमप्               =      लघुतमः

5. प्रकृतिप्रत्यय-विभागं कुरुत-

(क) रोदितुम्        =         रूद् + तुमुन्
(ख) दृष्ट्वा          =         दृश् + क्त्वा
(ग) विलोक्य       =         वि + लोकृ + ल्यप्
(घ) निक्षिप्य        =        नि + क्षिप् + ल्यप्
(ङ) आगत्य        =        आ + गम् + ल्यप्
(च) शयित्वा       =        शी + क्त्वा
(छ) लघुतमम्     =        लघु + तमप्

6. अधोलिखितानि कथनानि कः/का, कं/कां च कथयति-

कथनानि                                                    कं/काम्
(क) पूर्व प्रातराश: क्रियाताम्                           बालिकाम्
(ख) सूर्यातपे तण्डुलान् खगेभ्यो रक्ष।                बालिकाम्
(ग) तण्डुलान् मा भक्षय।                              स्वर्णकाकम्
(घ) अहं तुभ्यं तण्डुलमूल्यं दास्यामि।                स्वर्णकाक:
(ङ) भो नीचकाक! अहमागता, मह्यं तण्डुल   लुब्धाबालिका                                                                  स्वर्णकाकम्


7. उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकगतेषु पदेषु पञ्चमीविभक्तेः प्रयोगं कृत्वा रिक्तस्थानानि पूरयत-

यथा मूषकः बिलाद् बहिः निर्गच्छति (बिल)

(क) जनः ग्रामात्  बहिः आगच्छति। (ग्राम)
(ख) नद्यः पर्वतात् निस्सरन्ति । (पर्वत)
(ग) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति । (वृक्ष)
(घ) बालकः सिंहात् विभेति ? (सिंह) 
(ङ) ईश्वरः क्लेशात् त्रायते । (क्लेश)
(च) प्रभुः भक्तं पापात् निवारयति । (पाप)




लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं

।।लक्ष्यमस्ति निश्चितं।।
   ।। तथा विचारितं।।

लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं,
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्......।।

आंग्ल भाषया हि आंग्ल मध्य पाठ्यते..
हिन्दी हिन्दी भाषया तथैव शिक्षते।
संस्कृतेन संस्कृतं कथं न पाठ्यते..
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्....।।

लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं,
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्......।।

बौद्धिकारिकं तथासु दिप्ति कारिकम्..
रहस्य भेदनं विधाय तुष्टि दायकम्..
रसानु भूति ये नो जायते ध्रुवम्..
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्.।।

लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं,
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्......।

साध्यमस्ति सस्कृतेन शिक्षणं वरम्..
श्रद्धया स्वनिष्ठया विवर्धितं वरम्..
नास्ति क्लिष्टतायुतं विरम्यते कथम्..
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्..।।

लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं,
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्......।

लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं,
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्......।

लक्ष्यमस्ति निश्चितं तथा विचारितं,
आचरेम मित्र संस्कृतेन पाठनम्......।

Youtube link:- https://youtu.be/wwIKmaEAva4

भवतु भारतम्

भवतु भारतम्

शक्तिसम्भृतं युक्तिसम्भृतम्
शक्तियुक्तिसम्भृतं भवतु भारतम् ।।

शस्त्रधारकं शास्त्रधारकम्
शस्त्रशास्त्रधारकं भवतु भारतम् ।।

रीतिसंस्कृतं नीतिसंस्कृतम्
रीतिनीतिसंस्कृतं भवतु भारतम् ।।

कर्मनैष्ठिकं धर्मनैष्ठिकम्
कर्मधर्मनैष्ठिकं भवतु भारतम् ।।

भक्तिसाधकं मुक्तिसाधकम्
भक्तिमुक्तिसाधकं भवतु भारतम् ।।

भारतं भारतं भवतु भारतम्
भारतं भारतं भवतु भारतम्।।

https://youtu.be/X2xPEpdslf4

कालिदासो जने जने


कालिदासो जने-जने कण्ठे-कण्ठे संस्कृतम् ।
ग्रामे-ग्रामे नगरे-नगरे गेहे गेहे संस्कृतम् ॥.....


सरला भाषा मधुरा भाषा दिव्य भाषा संस्कृतम् ।
मुनिजनवाणी कविजनवाणी प्रियजन वाणी संस्कृतम् ॥1
कालिदासो जने-जने कण्ठे-कण्ठे संस्कृतम् ......


वसतो-वसतो रामचरितम् प्रियजन भाषा संसकृतम् ।
सदने-सदने भारत देशे ग्रामे-ग्रामे संस्कृतम् ॥2
कालिदासो जने-जने कण्ठे-कण्ठे संस्कृतम् ......


मुनिजन वांञ्छा कविजन वांञ्छा प्रियजन वांञ्छा संस्कृतम् ।
वदने-वदने कार्यक्षेत्रे वार्तालापे संस्कृतम् ॥3
कालिदासो जने-जने कण्ठे-कण्ठे संस्कृतम् ......

https://youtu.be/dksTsJDRi7Q

मंगलवार, 9 मई 2023

संस्कृत-प्रार्थना :- दयां कृत्वा हि विद्याया:

दयां कृत्वा हि विद्याया: , प्रभो दानं सदा देयम् ,
सदास्माकं हि चित्तेषु , दयस्व शुद्धता नेया |
प्रभो ! आयातु नो ध्याने, वसतु नेत्रेषु अस्माकम्

तमोयुक्तेषु हृदयेषु, परा आभासमादेया | 
प्रवाह्य ज्ञानगङ्गां च, हृदित्वं स्नेहसिन्धु च

मिथः सम्मिल्य वासस्य, प्रभो शिक्षा सदा देया |
सदा नः धर्मसेवा स्यात्, सदा नः कर्म सेवा स्यात् 
सदा शीलं हि सेवा स्यात्, परा निष्ठा समादेया |
भवेन्मे जीवनं भगवन्, तथा मरणं हि देशाय
तदर्थं जीवनत्याग:, प्रभो शिक्षा इयं देया ।

मंगलवार, 2 मई 2023

संस्कृत साहित्य परिचय


       संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। इसका साहित्यिक प्रवाह वैदिक युग से आज तक अबाध गति से चल रहा है। श्रद्धावश लोग इसे देववाणी तथा सुरभारती भी कहते थे। यह अधिसंख्यक भारतीय भाषाओं की जननी तथा सम्पोषिका मानी जाती है। राष्ट्रीय एकता एवं विश्वबन्धुत्व की भावना के विकास में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसमें रचित साहित्य का सत्य, अहिंसा, राष्ट्रभक्ति पृथ्वी-प्रेम, परोपकार, त्याग तथा सत्कर्म आदि भावनाओं के प्रसारण में अमूल्य योगदान है। संस्कृत का समकालीन साहित्य आधुनिक समस्याओं तथा मानव के संघर्षों को भी आत्मसात् करता है, जिससे विश्व के अन्य साहित्य की तुलना में संस्कृत की संवेदनशीलता को न्यूनतर नहीं माना जा सकता है।

प्राचीनकाल में, संस्कृत की रचनाएँ हजारों वर्षों तक मौखिक परम्परा में सुरक्षित रहीं तो आज की संस्कृत कृतियों का वैज्ञानिक विकास तथा तकनीकी प्रगति के साथ समन्वय उन्हें अद्यतन बनाता है। यह गौरव का विषय है कि न्यूनतम चार हजार वर्षों की संस्कृत-साहित्य-धारा में भारतीय समाज का प्रत्यंकन प्रायः प्रामाणिक रूप से होता रहा है, जहाँ भारतीय संस्कृति की समन्वय प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।

संस्कृत को मात्र प्राचीनता के लिए ही पढ़ना पर्याप्त नहीं है, अपितु अपने देश के बहुभाषिक परिदृश्य में संस्कृत की महत्ता राष्ट्र की एकता के लिए सर्वोपरि है। आधुनिक भारतीय भाषाओं पर संस्कृत के व्याकरण, शब्द-सम्पत्ति तथा वाक्य रचना का व्यापक प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पड़ा है। अन्य भाषाओं के समान आधुनिक संस्कृत भारतीय बहुभाषिकता का एक अभिन्न अंग है। जिस प्रकार बहुभाषी कक्षा में अन्य भाषाओं को सीखने में संस्कृत सहायक होती है उसी प्रकार कक्षा में उपलब्ध बहुभाषिकता (Multi-lingualism) का संस्कृत सीखने में उपयोग किया जा सकता है।

प्राचीन संस्कृत साहित्य के दो रूप प्राप्त होते हैं-वैदिक तथा लौकिक । वैदिक साहित्य के अन्तर्गत संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् ग्रन्थ आते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद इन चारों वेदों को संहिता कहते हैं। इन संहिताओं में जिन मंत्रों का संकलन है उनकी कर्मकाण्ड परक व्याख्या करने वाले ग्रन्थों को 'ब्राह्मण' कहा जाता है। आरण्यकों की रचना वनों में हुई। इनमें वैदिक कर्मकाण्ड की प्रतीकात्मक व्याख्या है। उपनिषदों

सोमवार, 1 मई 2023

कारक के चिह्न (विभक्ति चिह्न)

कारक के नाम            चिह्न                       विभक्ति
   कर्ता।                      ने                         प्रथमा 
   कर्म                       को                        द्वितीया
   करण                से,【द्वारा】।              तृतीया
  सम्प्रदान             को, के लिए                  चतुर्थी
  अपादान             से ,【अलग】              पंचमी
  सम्बन्ध            का,के,की,रा,रे,री               षष्ठी
 अधिकरण             में ,पर                        सप्तमी।

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

Why Sanskrit?


Why Sanskrit?

Sanskrit is a classical language that originated in ancient India and has been used as a language of scholarship and culture for thousands of years. It is considered to be one of the oldest languages in the world, with a rich history and literature that spans centuries.

There are several reasons why Sanskrit has been historically significant and continues to be studied and valued today:

Religious and Spiritual Texts: Sanskrit is the language of many ancient religious and spiritual texts in India, including the Vedas, Upanishads, and Bhagavad Gita. These texts have had a profound influence on the culture and spirituality of India and have been studied and revered for thousands of years.

Linguistic Significance: Sanskrit has been an important language for the development of linguistic theory and study. Its complex grammar and structure have fascinated scholars and linguists for centuries, and it has been instrumental in the development of modern linguistics.

Literature: Sanskrit has a rich and varied literary tradition, including epic poems, plays, and philosophical treatises. Many of these works have been translated into other languages and have had a significant impact on world literature.

Cultural Significance: Sanskrit has been an important language of scholarship and culture in India for centuries, and it continues to be studied and valued for its cultural significance.

Overall, Sanskrit is an important language with a rich history and cultural significance. It has played a significant role in the development of Indian culture and spirituality, as well as in the study of linguistics and literature.

शनिवार, 1 अप्रैल 2023

संगणकम्

 कम्प्यूटरः संगणकं वा अभिकलनं वा अभिसंचारं करोति। इत्यस्य उपयोग: कर्तुं शक्तो न केवलं व्यवसायिनः अपितु सर्वसामान्याः लोकाः।

कम्प्यूटरं अत्यन्तं शीघ्रतापूर्णं विधानं अनुपलब्ध्यामानं कार्यं एव करोति। अतः व्यवसायिनः अधिक कार्यपरिणामं उत्पादयन्ति एवं अधिकाधिक कार्योपचयं कर्तुं शक्ताः भवन्ति।

कम्प्यूटरं सर्वथा आधुनिकतापूर्णं उपकरणं अस्ति। सर्वसाधारणेषु गृहेषु अन्यच्छैत्रेषु च अद्भुतं उपयोगः आस्ते। विविधकार्येषु योजनाकारणं, आंकड़ाशोधनं, चित्रशोधनं, आदिकं कम्प्यूटरेण आसाध्यं भवति।

कम्प्यूटरं विशेषतः आधुनिकानां वैज्ञानिकानां आणि व्यवसायिनां अत्यन्तं उपकरणं भवति। वैज्ञानिकानां लघुपदार्थानां अन्वेषणं, सांख्यिकीयमानविज्ञानं, अभिकलनशास्त्रं, चिकित्सातत्त्वं, अद्भुतविज्ञानं आदयः कार्यान्यत

गुरुवार, 30 मार्च 2023

भारत के कुछ प्रमुख पर्यटन स्थल

भारत दुनिया में अपनी समृद्ध इतिहास, संस्कृति और विविधता के लिए जाना जाता है। यहां कुछ भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं:

१.ताज महल, आगरा - भारत का एक प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल है जहां स्थानीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित होते हैं।
२.हवा महल, जयपुर - यह एक इमारत है जो राजस्थानी शैली में बनाई गई है और जो राजपूतों के राज में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
३.कोचीन, केरल - यह एक आकर्षक नगर है जो एक आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है जो उत्तर भारत से अलग होता है।
४.गोवा - यह भारत का एक बहुत ही लोकप्रिय बीच स्थल है जो पर्यटकों को अपने सुंदर बीच, पारंपरिक फेनीशिंग और फेस्टिवल्स के लिए खींचता है।
५.खजुराहो के मंदिर - ये एक समृद्ध धार्मिक स्थल हैं जहां पर विभिन्न प्राचीन मंदिर हैं, जो समृद्ध भारतीय संस्कृति का प्रतीक हैं।

गांव

गांव भारत की संस्कृति का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है। गांव एक सामाजिक एवं आर्थिक संरचना है जिसमें लोगों के जीवन स्तर के साथ साथ उनकी संस्कृति एवं ट्रेडिशन भी जुड़े हुए हैं। गांव में सभी लोग एक दूसरे से परिचित होते हैं और एक साथ रहने का तालमेल रहता है। गांव में लोगों के जीवन शैली में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाता है। गांव एक प्राकृतिक वातावरण भी होता है जिसमें लोग पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखते हैं और जीवन को समृद्ध करने का प्रयास करते हैं।

बुधवार, 29 मार्च 2023

खम ठोक ठेलता है जब नर,पर्वत के जाते पाँव उखड़ ||

सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है | 
शूरमा नहीं विचलत होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते ||
  विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं |
  मुख से नाकभी उफ कहते हैं,संकट का चरण न गहते हैं ||
जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग निरत नित रहते हैं |
शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को ||
    है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में |
   खम ठोक ठेलता है जब नर,पर्वत के जाते पाँव उखड़ ||
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है |
 गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर ||
        मेहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका बीच उजियाली हो |
        बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है ||
पीसा जाता जब इक्षुदण्ड, झरती रस की धारा अखंड |
 मेहंदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार ||
     जब फूल पिरोए जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं |
     वसुधा का नेता कौन हुआ ? भूखंड विजेता कौन हुआ ?
 अतुलित यश क्रेता कौन हुआ ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ ?
 जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया ||
     जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हम जगाते हैं |
     मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झंझोरते हैं पल-पल ||
सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही |
 वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं ||
   वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड |
   वन में प्रसून तो खिलते हैं, बागों में शाल न मिलते हैं ||
        कंकरिया जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर |
        विपदाएं दूध पिलाती है, लोरी आँधियाँ सुनाती है ||
जो लाक्षागृह में जलते हैं, वे ही शूरमा निकलते हैं |
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा !
    जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे |
    तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिंगारी है ?
                                                  रामधारी सिंह "दिनकर"

रविवार, 5 मार्च 2023

शिवध्यानम्


ऊं डिं डिं डिंकत डिम्ब डिम्ब डमरु,पाणौ सदा यस्य वै।
फुं फुं फुंकत सर्पजाल हृदयं,घं घं च घण्टा रवम् ॥
वं वं वंकत वम्ब वम्ब वहनं,कारुण्य पुण्यात् परम्॥
भं भं भंकत भम्ब भम्ब नयनं,ध्यायेत् शिवं शंकरम्॥

यावत् तोय धरा धरा धर धरा ,धारा धरा भूधरा।।
यावत् चारू सुचारू चारू चमरं, चामीकरं चामरं।।
यावत् रावण राम राम रमणं, रामायणे श्रूयताम्।
तावत् भोग विभोग भोगमतुलम् यो गायते नित्यशः॥

यस्यास्ते द्राट द्राट द्रुट द्रुट ममलं, टंट टं टं टटं टं।
तैलं तैलं तु तैलं खुखु खुखु खुखुमं ,खंख खंख सखंखम्॥
डंसं डंसं डु डंसं डुहि डुहि चकितं, भूपकं भूय नालम्।।
ध्यायन्ते विप्रगान्ते वसतु च सकलं पातु नो चन्द्रचूड़ ||

चैतन्यं मनं मनं मनमनं मानं मनं मानसम!
माया ज्वार धवं धवं धव धवं धावं धवं माधवं
स्वाहा चार चरं चर चरं चारं चरं वाचरं 
वैकुंठाधिपते भवं भवभवं भावंभवं शांभवं !!

शुक्रवार, 3 मार्च 2023

दिनकर का जाति-प्रथा पर करारा प्रहार :- 'शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछने वाले'

फिरा कर्ण, त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सकल नर-नारी,
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, 'वीर! शाबाश!'

द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा।
कृपाचार्य ने कहा- 'सुनो हे वीर युवक अनजान'
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।

'क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?'

'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।

'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

   ‘रश्मिरथी’ 1952 ई० में प्रकाशित हुआ था। रश्मिरथी का अर्थ ‘सूर्य का सारथी’ होता है। यह एक प्रसिद्ध ‘खण्डकाव्य’ है। यह खड़ीबोली में लिखा गया है। रश्मिरथी में कर्ण के चरित्र के सभी पक्षों का चित्रण किया गया है। दिनकर ने कर्ण को महा भारतीय कथानक से ऊपर उठाकर उसे नैतिकता और विश्वसनीयता की नई भूमि पर खड़ा करके उसे गौरव से विभूषित किया है। रश्मिरथी में दिनकर जी ने सभी सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को नये सिरे से परखा है। रश्मिरथी में कवि ने कर्ण को नायक बनाया है, अर्जुन गौणपात्र है।

रश्मिरथी में सात सर्ग है।

प्रथम सर्ग: कर्ण का शौर्य प्रदर्शन

दूसरा सर्ग: परशुराम के आश्रम वर्णन (आश्रमवास)

तीसरा सर्ग: कृष्ण का संदेश

चौथा सर्ग: कर्ण के महादान की कथा

पाँचवाँ सर्ग: माता कुन्ती की विनती

छठा सर्ग: शक्ति प्रदर्शन

साँतवा सर्ग: कर्ण के बलिदान की कथा 

       ‘रश्मिरथी’ महाकाव्य काव्य में रश्मिरथी कर्ण का नाम है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है। कर्ण महाभारत महाकाव्य का अत्यंत यशस्वी पात्र है। कर्ण का जन्म पाण्डवों की माता कुंती के गर्भ से उस समय हुआ था, जब कुन्ती अविवाहित थी। लोक-लज्जा के भय से बचने के लिए कुन्ती ने अपने नवजात शिशु को एक मंजूषा में बंद कर उसे नदी में बहा दिया था। वह मंजूषा अधिरथ नाम के एक सूत को मिला था। अधिरथ को कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने उस बच्चे का पालन-पोषण अपने पुत्र के जैसा किया। अधिरथ की धर्मपत्नी का नाम राधा था। राधा के द्वारा पालन-पोषण होने के कारण ही कर्ण का एक और नाम ‘राधेय’ भी है।